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नहीं देखते, पुराने रीति-रिवाजों को नहीं मानते और हर बात में अपनी टाँग अड़ाते हैं ।
नयी पौध को भी शिकायत है - बुजुर्ग हमें बढ़ने से रोकते हैं, वे हमारे मस्तिष्क को उन्हीं सड़ी-गली परम्पराओं से जकड़ कर रखना चाहते हैं । उनमें स्वयं साहस नहीं और हमारे साहसिक कार्यों को पसन्द भी नहीं करते ।
राजनीति के कण-कण में भी यही विष घुला हुआ है। जनता सरकार की आलोचना करती है— सत्तारूढ़ शासक ईमानदारी से अपना दायित्व नहीं निभा रहे हैं, वे अपना घर भरने का प्रयत्न करते हैं, जनता की तकलीफों से उन्हें कोई वास्ता नहीं है, सिर्फ चुनाव के समय वे जनता के सेवक हैं, और बाद में शासक ।
उधर शासक दल भी यही स्वर आलाप रहा है— जनता सहयोग नहीं करती, भ्रष्टाचार और लाल फीताशाही मिटाना जनता का ही काम है, वह अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रही है ।
इसी प्रकार दुकानदार को ग्राहक से और ग्राहक को दुकानदार से, मजदूर - मालिक, सेठ-मुनीम और छात्र- शिक्षक— सभी एक दूसरे से शिकायत करते हैं । मजा तो यह है कि अपनी शिकायत पर किसी का ध्यान ही नहीं है ।
एक ओर अल्प दृष्टि का रोग है, जहाँ व्यक्ति अपने घेरे से बाहर निकल कर नहीं सोचता, वहाँ दूसरी ओर इतनी दूर दृष्टि का रोग भी बढ़ गया है कि व्यक्ति को अपना कुछ भी दिखाई नहीं देता । स्वार्थ के समय सिर्फ वह अपने तक देखता है और बुराई के समय सिर्फ दूसरी तरफ, और जब तक दृष्टि की यह बीमारी रहेगी, शिकायत का रोग मिट नहीं सकता ।
जिसका जूता, उसका हीरा !
मुगल युग की एक घटना है, दिल्ली का बादशाह हार गया, कोहेनूर विजेता के हाथ में जा पहुँचा । विजेता ने गर्वस्फीत नेत्रों से निहारा- कोहेनूर हीरे की कीमत क्या है ?
पराजित बादशाह ने प्रश्न को दुहराते हुए कहा – कोहेनूर की ? और फिर धीरे से उत्तर देते हुए कहा — एक जूता
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अमर डायरी
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