Book Title: Amar Diary
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 129
________________ जैन आगमों में यौगलिक युग का वर्णन आता है, उनमें कोई नेता, शासन नहीं होता था, सब स्वतंत्र और अपने जीवन को व्यवस्था के अनुसार स्वत: संचालन करते थे। किन्तु जब आवश्यकताएँ बढ़ीं, वस्तुओं का अभाव हुआ, तब संघर्ष और द्वन्द्व ने जन्म लिया, आक्रामक वृत्तियाँ जगीं, सबल निर्बल को दबाने लगा। उन्हीं परिस्थितियों में शासन-तंत्र का उद्भव हुआ। हमारे यहाँ देवताओं का वर्णन किया गया है, बारहवें देवलोक के ऊपर सभी देव अहमिन्द्र होते हैं, उनमें कोई छोटा-बड़ा, स्वामी-सेवक नहीं होता। इस वर्णन से यह ध्वनित होता है कि मानव जब जीवन की ऊँचाई पर पहुँच जाता है, तो उसके लिए नियंत्रण और शासन की आवश्यकता नहीं रह जाती। जिनकल्पी और स्थविरकल्पी की व्यवस्था से भी यह प्रकट होता है, कि जिनकल्पी जो स्वयं अपने जागृत विवेक से चलता है, उसके लिए किसी शासन की आवश्यकता नहीं है, किन्तु स्थविरकल्पी-जिसके कि जीवन में कुछ दुर्बलताएँ, प्रमाद हैं, उसके लिए संघ व्यवस्था की गई है। संस्कृत की एक सूक्ति है - सर्वो दण्डेन जितो लोकः । संसार डंडे से जीता जा सकता है, किन्तु मेरा विचार है कि यह डंडा मनुष्य के लिए नहीं, किन्तु मनुष्य के रूप में जो पशुता धूम रही है, उसके लिए है। पशु को बाड़े में बन्द करना है, तब भी डंडा चाहिए, बाड़े से बाहर निकाल कर चराने के लिए जंगल में ले जाना है, तब भी डंडा चाहिए। पशु के दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे, चारों तरफ डंडा घूमता रहता है । लेकिन मनुष्य के लिए यह नहीं हो सकता। उसका तंत्र ऊपर से नहीं लादा जाना चाहिए, किन्तु भीतर से, हृदय से ही उद्भूत होना चाहिए। आज शासन-मुक्ति, तंत्र-मुक्ति का जो विचार पनप रहा है, वह वास्तव में ही मानवता का महत्वपूर्ण दर्शन है। इन विचारों का यह अर्थ नहीं है कि हम सब शासन मुक्त होकर उछृङ्खल भाव स्वच्छन्द विहार करने लगे। शासन होना चाहिए, जरूर होना चाहिए किन्तु वह शासन 'पर' का नहीं, 'स्व' का ही होना चाहिए, दर्शन की भाषा में आत्मानुशासन होना चाहिए। वह अन्तर से उद्भूत होना चाहिए । 120 अमर डायरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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