Book Title: Amar Diary
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 141
________________ पवित्रता का मानदण्ड उसका वेश नहीं है, किन्तु उसके जीवन की भूमिका है। उसमें त्याग, सच्चाई और निष्ठा का चमत्कार है या नहीं? यदि साधु का वेश पहन लेने के बाद भी उसमें निष्ठा, त्याग और वैराग्य का अभाव है तो वह साधु का वेश सिर्फ आत्मप्रवंचना है । लाखों-करोड़ों ऐसे वेश पहनने वाले नरक में चले गए। और गृहस्थ के जीवन में भी यदि त्याग, सदाचार और सत्यनिष्ठा है तो वह बिना वेश के भी साध है, वह वन में रहे या भवन में, मुक्त हो सकता है । जैसे भरत शीशमहल में बैठे-बैठे ही केवलज्ञानी बन गए। जैन धर्म ने श्रेष्ठता का मानदण्ड, अन्तर-आत्मा की पवित्रता को माना है, वेश और पद को नहीं। परिग्रह क्या ? ___ भगवान महावीर से पूछा गया-परिग्रह क्या है? उन्होंने यही कहा कि-पुत्र परिवार, धन-सम्पत्ति आदि परिग्रह हैं या जमीन, हाथी-घोड़े परिग्रह हैं, चूँकि निश्चय नय की दृष्टि से यह सब तो जड़ या चेतन स्वतन्त्र वस्तु हैं, परिग्रह का जो जहर है, वह तो अपने अन्दर में है और वह है-ममत्व ! इसीलिए उन्होंने बताया मुच्छा परिग्गहो वुत्तो अर्थात्-मूर्छा परिग्रह है, आसक्ति परिग्रह है। एक चिऊँटी जिसके पास सिर्फ नन्हा-सा शरीर है, न घर है, न परिवार है, न वस्त्र है, न खाने का संग्रह है, यदि वस्तु की दृष्टि से देखा जाय तो वह बहुत बड़ी अपरिग्रही है। और एक चक्रवर्ती जिसके पास विशाल साम्राज्य है, हजारों रानियाँ हैं, अनेक भण्डार भरे हुए हैं, वह बहुत बड़ा परिग्रही है। किन्तु मैं कह चुका हूँ जैन-धर्म वस्तुवादी है ही नहीं, वह भावनावादी है। चिऊँटी भी अपनी दैहिक ममता में उसी प्रकार फँसी है, जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने साम्राज्य में, इस दृष्टि से दोनों ही परिग्रही हैं, मूर्छा या ममता भाव दोनों में ही विद्यमान है। सर्वस्व लुटाकर भी, साधु बनकर भी यदि कोई ममत्व का त्याग नहीं करता है, तो वह अपरिग्रही नहीं हो सकता। जब 'मेरापन' की भावना का विसर्जन किया जाएगा, वस्तु की आसक्ति मिटाई जाएगी तभी परिग्रह का त्याग हो सकेगा। अमर डायरी 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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