Book Title: Amar Diary
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 144
________________ भारतीय संस्कृति का यह नाद हमारे भोजन के एक पहलू पर अच्छा प्रकाश डालता है । घर, परिवार और समाज की परम्परा में प्रेम और सौहार्द की एक धारा भोजन के माध्यम से सदा बहती रही है, और वह यही है कि दूसरों को निमन्त्रित करके खाए, खिलाकर खाए और बाँटकर खाए । मन के भिखारी एक भिखारी जो जीवन भर फूटे ठीकरे में भीख माँगता रहा, सौभाग्यवश एक दिन राजा बना दिया गया। जब वह राजसी ठाट-बाट में सोने के सिंहासन पर बैठा तो मन्त्री उसके सन्मुख उपस्थित हुआ, और कोई आज्ञा माँगने लगा । भिखारी का मन कांप गया और बोल भी न सका । कुछ क्षण सेनापति अपने सैनिक लिहाजे से आकर नमस्कार करके आदेश की प्रतीक्षा करने लगा, वह तो अपनी पूर्व स्थिति याद करके रोनी सी सूरत बना कर बैठा रहा। जब वह मन्त्री और सेनापति से कुछ भी बात न कर सका और हीन भावनाओं के कारण बिल्कुल मायूस बना बैठा रहा तो अन्य दरबारी लोग उसे मूर्ख समझकर हँसी-मजाक करने लगे। भिखारी उनकी हँसी देखकर सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ भी मन ही मन रोने लग गया कि सब सेवक उसकी मजाक उड़ा रहे हैं । भिखारी की इस बात पर आपको हँसी आती होगी, किन्तु यही स्थिति आज हम सबकी हो रही है। हम लोग मानव जन्म रूपी राजगद्दी पर आकर बैठ तो गए हैं, लेकिन उस राज्य का आनन्द और उल्लास, गौरव और सामर्थ्य हमने नहीं जाना है, हम अपने मन रूप मन्त्री को आदेश देने में असमर्थ पाते हैं, इन्द्रियाँ रूप सेनापति और कर्मचारियों के सामने अपने आपको हीन समझते हैं, और इस प्रकार मन और इन्द्रियाँ जो वास्तव में हमारे दास हैं, हम उनसे डरते हैं, उनके प्रभाव में बह रहे हैं और उन्हें अपने आदेश पर नहीं चला रहे हैं । मन का यह भिखारीपन जब तक नहीं मिटेगा, हम राजा बनकर भी राजा होने का आनन्द नहीं उठा सकेंगे, और यों ही रोते-बिलखते रहेंगे । अमर डायरी Jain Education International For Private & Personal Use Only 135 www.jainelibrary.org

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