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आज धर्म का रूप यही बन गया है कि धर्म स्थान में घुसने पर उसकी फटी-पुरानी चादर ओढली जाए है, और उससे निकलते ही उतार कर रख दी जाए। ___ एक बीमार अस्पताल में भरती हुआ, दवा लेने पर स्वस्थ हो गया और डाक्टर ने छुट्टी दे दी। ज्यों ही अस्पताल के दरवाजे से बाहर कदम रखा कि पुन: बीमार हो गया। अब हालात यह हो गई कि अस्पताल में जितने दिन रहे तब तक आराम ! और जब-जब स्वस्थ होकर बाहर निकलता है तो बीमार !
तो क्या यह जीवन अस्पताल में ही पड़े-पड़े जिन्दगी गुजारने के लिए है ? उस जीवन में हँसी और आनन्द नहीं आ सकता।
यही हालत आज हमारे धार्मिकों की हो रही है। जब तक धर्म स्थान में हैं तब तक, दया, समता, अपरिग्रह आदि की बड़ी ऊँची-ऊँची बातें बताई जाती हैं। प्राणी मात्र के साथ मैत्री की प्रार्थना की जाती है किन्तु ज्योंही धर्म स्थान से बाहर निकले कि क्रोध, अभिमान घृणा की बीमारी आ घेरती है। ईर्ष्या और द्रोह की जलन पैदा हो जाती है। ___ तो यह भारी बीमारी है, इस प्रकार की धर्म साधना से जीवन में आनन्द और उल्लास नहीं चमक सकता। धर्म की साधना तब सफल होगी, जीवन का प्रत्येक कोना उसकी सुवास से सुगन्धित होगा, जीवन के हर क्षेत्र में उस धर्म की छाप होगी। धर्म की परिभाषा ___ आचार्य कुन्दकुन्द से पूछा गया--'धर्म क्या है ?' बड़े सहज ढंग से उन्होंने बताया-'वत्थु सहावो धम्मो-वस्तु का अपना स्वभाव, निज गुण-धर्म है। · अग्नि का स्वभाव तेज है, अग्नि किसी भी स्थान में जलाएँ, किसी समय में जलाएँ उसमें से तेज प्रस्फुरित होगा ही। स्थान या काल उसके स्वभाव को बदल नहीं सकते। वह चाहे ब्राह्मण के घर में जले चाहे शूद्र के घर में, चाहे तीर्थ स्थान पर जले चाहे घर में, चाहे विवाह मंडप में जले चाहे श्मशान में, चाहे दिन में जल या रात में-उसका स्वभाव कभी भी क्षीण या नष्ट नहीं हो सकता।
wamerarya
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अमर डायरी
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