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बच्चों सी नादानगी ?
नफरत से नफरत मिलती है, प्रेम नहीं मिलता । क्रोध से क्रोध ही मिलता है, शान्ति व स्नेह नहीं मिलता। ढाई हजार वर्ष पहले का यह उद्घोष आज का मनुष्य सुनकर भी अनसुना कर रहा है।
आज युद्ध की आग जला कर शान्ति की शीतलता पाने का सपना देखा जाता है । मनुष्य बुराई करके उसका परिणाम भलाई में चाहता है। बच्चे जैसी इस अबोधता पर सयाने लोगों को हँसी आती है ।
एक बच्चा जेठ की दुपहरी में खेलता हुआ घर आया । और शरीर पर से सारे वस्त्र उतार कर धूप में खड़ा हो गया। माता ने पूछा- बेटा ! धूप में क्या कर रहा है ?
बच्चे ने कहा- कुछ नहीं, जरा पसीना सुखा रहा हूँ ।
माँ ने हँस कर कहा—बेटा ! क्या कभी धूप में पसीना सूखता है ?
क्यों नहीं माँ ? जब गीले वस्त्र धूप में सूख जाते हैं, तब पसीने से भीगा हुआ शरीर क्यों नहीं सूखेगा ?
नादान बच्चे की बात पर आप लोग हँस रहे हैं, किन्तु वही भूल आप लोग तो नहीं कर रहे हैं ?
क्या आप वैर को वैर से शान्त करना चाहते हैं ? काम से काम को बुझाना चाहते हैं? यदि हाँ, तो फिर वही नादानगी है ।
इसलिए भगवान महावीर ने कहा है
उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । माया मज्जव-भावेण लोहं संतोसओ जिणे ॥
क्रोध को शान्ति से, अहंकार को नम्रता से, कपट को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतो । यही सुख और शान्ति का मार्ग है ।
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शासन का उद्भव
यह बात सूर्य के उजाले की तरह स्पष्ट है कि शासनतंत्र के नीचे अभाव, संघर्ष, द्वन्द्व एवं आक्रमण छिपे रहे हैं। मनुष्य की दुर्बलता, अस्मिता और आक्रामक भावनाओं ने ही उसे जन्म दिया है ।
अमर डायरी
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