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जो समाज अतीत जीवी है, एकमात्र अतीत के ऊपर ही जीवन धारण करता है, मृत विगत पर ही आँखें बिछाए बैठा है, वह कभी प्रगति नहीं कर सकता । आँखें मस्तक में आगे की ओर लगी हैं, इसका अर्थ है- हम वर्तमान में से भविष्य की ओर देखें, सुन्दर भविष्य के निर्माण की योजनाएँ विचारें । यदि अतीत दर्शन ही प्रकृति को अभीष्ट होता, तो आँखें मस्तक के पृष्ठ भाग में पीछे की ओर लगी होतीं ।
किंवदन्ती है कि मनुष्य के चरण आगे की ओर होते हैं, तो भूत-प्रेतों के चरण पीछे की ओर मुड़े होते हैं। क्या है, क्या नहीं; यह मीमांसा यहाँ नहीं करनी है । इसका अर्थ यहाँ अभी इतना ही लेना है कि जिन के चिन्तन, मनन और कर्म अतीत की परिकल्पनाओं के आधार पर निश्चित होते हैं, वे आगे नहीं बढ़ सकते, पीछे की ओर ही लौटते हैं। उनके भाग्य में प्रगति नहीं, अप्रगति एवं अवगति ही होती है ।
नेहरू जी ने कभी कहा था— अतीत महान् है । अतीत के गौरव से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु और कुछ नहीं है। किन्तु जब तब केवल उसी अतीत के गौरव पर निर्भर रहने से बढ़कर खतरनाक चीज भी और कुछ नहीं है ।
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आज के बालक और बालिकाएँ, आज के युवक और युवतियाँ किसी भी समाज एवं राष्ट्र के आने वाले कल (भविष्य) के प्रतिनिधि हैं। आने वाला कल सुन्दर होगा या असुन्दर, यह उनकी योग्यता पर निर्भर है । कल के निर्माता आज अपने को कल के योग्य बनाएँ । मन, वाणी, कर्म की प्रबुद्धता ही सृजनात्मक प्रवृत्ति का मूल तत्व है ।
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शक्ति ही विभूति का मूल है। कोई भी समाज तथा राष्ट्र अपनी आन्तरिक एवं बाह्य शक्ति से प्रगति कर सकता है, आगे बढ़ सकता है। शक्तिशून्य शिव भी शव हो जाता है । शव अर्थात् निष्प्राण, निस्तेज, निश्चेष्ट !
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अमर डायरी
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