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मनुष्य पाप क्यों करता है?
इसका उत्तर संस्कृत के एक विचारक ने दिया है-सर्वारम्भास्तण्डुला: प्रस्थमूला:-सब काम मुट्ठी भर अनाज के लिए होते हैं। मनुष्य को जब भूख सताती है तो वह उसे शान्त करने के लिए पाप, अधर्म सब कुछ करने लगता
-'बुभुक्षित: किं न करोति पापं,
क्षीणा नरा निष्करुणा भवंति।' पर वास्तव में क्या पेट की भूख इतनी बड़ी है कि उसके लिए ही यह सब कुछ करना होता है ? वह विकट अवश्य होती है, किन्तु विराट नहीं होती, बहुत ही सीमित होती है। ___ मनुष्य के पेट का गड्ढा-जिसे संस्कृत में उदरदरी कहते हैं, बहुत छोटा है, सीमित है, किंतु मन का गड्डा--मनोदरी-उदरदरी से बहुत बड़ा है, असीम है और उसी को भरने के लिए अधिकांश पाप होते हैं। पर आश्चर्य यह है कि पाप करके भी आज तक कोई उस गड्ढे को भर नहीं
पाया।
* प्रसिद्ध सन्त डायोजिनीज ने एक बार उदरदरी को भरने में संलग्न मनुष्यों को लक्ष्य करके कहा था-"जिन घरों में सामग्री भरी होती है, उनमें चूहे भरे हो सकते हैं। उसी तरह जो लोग बहुत खाते हैं वे रोगों से भरे हो सकते हैं।"
तथागत बुद्ध ने अधिक और बार-बार खाने वाले को रोगी कहा है। भोजन करने वालों की तीन श्रेणियाँ बताई गई हैं
१. एक बार-(क्षुधा शान्ति के लिए) खाने वाले-योगी। . २. दो बार (क्षुधा व स्वाद के लिए) खाने वाले--भोगी।
३. बार-बार (बिना किसी विवेक के) खाने वाले रोगी या पशु ।
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अमर डायरी
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