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मेरे विचार में—चिन्तन करने की विशुद्ध प्रक्रिया--'सत्य-रूप अनेकान्त है' और जीवन जीने की विशुद्ध पद्धति-अहिंसात्मक अनेकान्त है।
इसी विचार के सन्दर्भ में गांधीजी का यह चिन्तन हमारे लिए मनन करने योग्य है-“मेरा अनेकान्तवाद, सत्य और अहिंसा, इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।”
महर्षि व्यास ने महाभारत के उपक्रम में उसकी मूल भावना व्यक्त करते हुए लिखा है
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्। ____ अहिंसा साधुहिंसेति, श्रेयान् धर्मपरिग्रहः ।। ---संसार में धर्म का प्रतिपादन जीवन निर्वाह के लिए ही किया गया है। अहिंसा अच्छी है या हिंसा, यह निर्णय भी इसी आधार पर किया जायेगा कि आप कैसा जीवन पसंद करते हैं? यदि अच्छा और सुखी जीवन चाहते हैं तो फिर धर्म का ही पालन करना चाहिए। इसी भावना की अभिव्यक्ति आचार्य भद्रबाहु ने यों की है
"अंगाणं किं सारो? आयारो !" -अंग (भगवद् वाणी) का सार क्या है ? उसका मूल अभिप्राय क्या है ? आचार ! जीवन जीने की कुशल पद्धति !
किसी की भलाई की भावना से भी निन्दात्मक और कटु वचन का प्रयोग मत करो।
किसी गरीब का चूल्हा जलाने के लिए भी क्या कोई अंगारे को हथेली में रख कर देता है? __ जैन विद्वान पं. आशाधरजी ने धर्मात्मा के चौदह लक्षण बतलाए हैं, उनमें पहला लक्षण हैं-'न्यायोपात्तधनोपार्जनम्' (सा. ध १/१११) न्याय से अर्जित धन का उपयोग करने वाला धर्मात्मा है।
अमर डायरी
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