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मिट्टी और लकड़ी के खिलौनों के रूप में आजकल तरह-तरह के सुन्दर फल और मिठाइयों की आकृतियाँ देखते हैं, पर क्या उनसे भूख मिट सकती है ?
संसार के मीठे और सुन्दर लगने वाले पौद्गलिक सुखों को भी उसी प्रकार समझो ! उनसे मन की परितृप्ति नहीं हो सकती ।
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साबुन जब कपड़ों पर लगता है, तो उसमें सुन्दर झागों का गुब्बारा खड़ा हो जाता है। जिसमें तरह-तरह के रंग दिखाई देते हैं। पर क्या वे रंग सच्चे और स्थायी हैं ? इसी प्रकार वाचाल आदमी बातों के झाग बनाकर उनमें तरह-तरह के रंग चमका देता है, पर दूसरे ही क्षण वे समाप्त हो जाते हैं
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बहुं सुणेहिं कन्नेहिं बहुं अच्छीहिं पिच्छइ । नय दिट्ठे सुयं सव्वं भिक्खु अक्खाउमरिहइ । दशवैकालिक ८ । २०
साधक कानों से बहुत कुछ सुनता है, और आँखों से बहुत कुछ देखता भी है। किन्तु देखा सुना सब कुछ ही किसी के सामने कह डालना उचित नहीं है।
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मानव ! तेरे अन्तर में आनन्द का अनन्त निर्झर बह रहा है और तू बाहर भटक रहा है, एक-एक बूँद के लिए ! अनन्त - अनन्त जन्मों से पिपासा - कुल ! अशान्त और दिग्मूढ़ बना ! कैसा है यह विभ्रम ! !
बहिर्मुख चेतना बन्धन है, बन्धन में आनन्द कहाँ ? अन्तर्मुख चेतना मोक्ष है ! आत्मभाव की उपलब्धि, निजत्व की अनुभूति !
मानव ! अपने अन्दर में आ ! अन्तर्मुख चेतना का महान प्रकाश प्राप्त कर । आत्मा का अनन्त अमृतानन्द बाहर में नहीं, अन्तर में है ! !
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अमर डायरी
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