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यह देखो, चन्दन के पास में खड़े वृक्ष ! अन्य वृक्षों के समान ही हैं, किन्तु इनमें एक अजब सुगंध महक रही है। __ यह देखो, भगवद्भक्त ! दीखने में तुम्हारे जैसा ही है, किन्तु इसका अन्तर प्रभु-भक्ति की सुगन्ध से महक रहा है। तरोताजा बना हुआ है।
बाह्य रूप को बदलने की जरूरत नहीं अन्तर हृदय को बदलो !
मछली यदि यह जान जाए कि बंसी के नीचे काँटा लगा हुआ है, तो क्या वह उसे निगलेगी? सिंह यदि यह जान ले कि यहाँ जाल है, तो क्या वह उसमें पड़ेगा?
पर, आदमी है कि जान-बूझकर भी थोड़े से लालच के लिए अपने को आपत्तियों में डाल देता है।
जहाँ लोभ का राज्य है, समझ लो कि वहाँ आत्मा दरिद्र है।
क्या सद्गुण संपत्ति से भी अधिक कीमती नहीं है ? क्या अपराध दरिद्रता की अपेक्षा अधिक अधम नहीं है?
निन्दा को पचाना कठिन है, किन्तु उससे भी कठिन है प्रशंसा का पचाना ! प्रशंसा के दो शब्द मनुष्य को आत्मविस्मृत कर देते हैं; मनुष्य के अपने अस्तित्व को भुला देते हैं। मनुष्य में यही एक महान् कमी है।।
एक पौराणिक आख्यायिका है। एक बार किसी बहुत ही चतुर व कलाकार मनुष्य ने सोचा कि ऐसा कोई उपाय निकालें, कि मृत्यु आए तो खाली लौट जाये, अपने को पहचान न सके?
बहुत ही सोच-समझकर उसने अपने समान बारह मूर्तियाँ बनाई । एक जैसी थीं सब ! कुछ भी तो अन्तर नहीं ! एक दिन मरण काल में जब यमदूत उसे अमर डायरी
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