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ज्ञान के सामने अभिमान नहीं टिक सकता। जब मनुष्य को अपने अज्ञान का भान हो जाता है तभी वह सच्चा ज्ञानी बनता है। और ज्ञान मिला कि अभिमान गायब !
सन्त विनोबा ने कहा है “तुम्हारे घर पर आया हुआ अतिथि समाज का प्रतिनिधि है । अतिथि के रूप में समाज तुम्हारी सेवा माँग रहा है।" .. समाज तो अव्यक्त है, वह 'अतिथि देव' के रूप में ही तुम्हारे सामने व्यक्त होना चाहता है।
अव्यक्त समाज की व्यक्त मूर्ति-अतिथि है।
अतिथि की तरह दीन दुःखी रोगी की सेवा करना भी अतिथि-पूजा अर्थात् समाज-पूजा है। समाज के अंग की सेवा है।
तुम मृत्यु से क्यों डरते हो?
मृत्यु दुःख रूप नहीं; सुख रूप है । जिन दुःखों से निकटतम सगे स्नेही नहीं छुड़ा सकते उन दुःखों से मृत्यु छुड़ा देती है। विनोबाजी की दृष्टि में मृत्यु के दुःख वस्तुत: जीवन के ही दुःख हैं। .
रोग, मृत्यु के कारण नहीं, जीवन में असंयम के कारण होता है, संपत्ति और स्वजनों को छोड़ने का दुःख, मृत्यु के कारण नहीं, आसक्ति के कारण है । मृत्यु के बाद क्या होगा, यह भय भी अज्ञान-जनित है।
इसलिए मृत्यु से डरो नहीं; कलात्मक ढंग से उसे स्वीकार करो, वह सुख का कारण बनेगी !
मरणकाल के कुछ दुःख चार प्रकार के हैं-शरीर बेदनात्मक, पाप स्मरणात्मक, सुहृद मोहात्मक, और भावी चिन्तात्मक। . अमर डायरी
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