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सन्त दादूदयाल ने इसी बात का समर्थन करते हुए लिखा है
'जे पहुँचे, ते पूछिए, तिनकी एके बात सब साधों का एक मत, बिचके बारह बाट ।"
जब हम अपने से दूर हट जाते हैं, तब हम अपनी चेतना का हाथ छोड़ कर, मरीचिका का हाथ पकड़ने के लिए भटकना शुरू कर देते हैं।
सुखान्त (कोमेडी) मार्ग वहीं हम से छूट जाता है, और हम दुःखान्त (ट्रेजेडी) मार्ग पर फिसलने लगते हैं।
कहा जाता है—यह सृष्टि शब्द (ऊँ, या डमरू ध्वनि) में से उत्पन्न हुई है, इसलिए इसे 'शब्द-प्रसवा' कहा गया है।
पौराणिक रूप से यह 'शब्द प्रसवा' हो या न हो। किन्तु आज तो जरूर ही यह 'शब्द प्रसवा' है । एक ही शब्द में से लाखों विचार प्रवाह फूट रहे हैं, और वे विचार ही सृष्टि के उत्थान और विनाश का कारण बनते हैं।
ऐ मन ! तू तीन चीजों पर काबू रख ! फिर सब तेरे काबू में रहेंगे। स्वभाव पर, जीभ पर और चाल-चलन पर ।
दृष्टि की चर्चा चल रही थी, कि यदि दृष्टि सम्यक् है तो वह पापश्रुत (असत् साहित्य) को भी सम्यक् श्रुत (सत्साहित्य) के रूप में परिणत कर लेती है। तभी पड़ोस में एक रिकार्ड बज उठा
“तू कौन-सी बदली में, मेरे चाँद ऐ आजा" मैंने कहा-यह शृंगार रस की पंक्ति भी हमारे में अध्यात्म की प्रेरणा जगा सकती है, यदि हम इसे अपने दृष्टिकोण से देखें तो।" पूछा “कैसे ?"
अमर डायरी
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