________________
तुम्हारे अस्तित्त्व की इतिश्री केवल उसकी निःसार वासनाओं की तृप्ति में नहीं है, अपितु है, उसके जीवन की कठिनाइयों में सहायता देने में, अपनी कोमलता से संतोष देने में और मृदुल प्रेम भाव से उसकी चिंताएँ मिटाने में I
*
*
*
वह कौन भाग्यशालिनी देवी है, जो मनुष्य के हृदय पर शासन करती है ? जिसकी आँखों में विनय, विवेक और कोमलता झलकती है। प्रेम बरसता
है ।
विनम्रता, और आज्ञापालनता जिसके जीवन का पाठ है । जिसकी जिह्वा पर अमृत का वास है !
वह अपनी संतान के मन पर ज्ञान के संस्कार डालती है। अपने सद्- आचरणों के प्रतिबिम्ब स्वरूप उनके जीवन का निर्माण करती है ।
वह जैसे ही कर्तव्य कर्म के लिए इशारा करती है, तो नौकर झट दौड़ पड़ते हैं। संकेत मात्र उसका आदेश है। उसके प्रेम ने सबके हृदयों को बाँध रखा है । वह उत्कर्ष में घमंड से फूलती नहीं । विपत्ति में अपने भाग्य के घावों को धैर्य की मलहम पट्टी से अच्छा करती है ।
उसके परामर्श से पति के कष्ट हलके हो जाते हैं। पति के सुख दुःख में वह हिस्सेदार है ।
*
*
एक निरे शुष्क अध्यात्मवादी सज्जन कभी-कभी आते हैं। एक दिन चर्चा चल पड़ी, तो बोले - जीवन में पाप की तरह पुण्य भी तो बन्धन है, अत: वह भी हेय है।” मैंने कहा - " बन्धन जरूर है, किन्तु जब तक जीवन में अबन्धक स्थिति (चौदहवाँ गुणस्थान) नहीं आ जाती, पुण्य बन्ध चलता ही रहता है । उसे संकल्पपूर्वक छोड़ने की जरूरत नहीं ।
बोले - " जब आत्मा को बन्धन कारक है तो छोड़ना ही होगा । इसलिए ज्यादा पुण्य भी नहीं करना चाहिए, उससे भी आत्मा भारी ही होती है ।”
36
अमर डायरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org