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२. मन का मौन-मन में विकल्प न उठाना, मन का इधर उधर न भटकना। ३. काया का मौन-इन्द्रियों को चुप-शांत रखना, विषयों में प्रवृत्त न
करना।
४. आत्मा का मौन–समस्त पर भाव में मूक रहकर, आत्मभाव में लीन रहना।
अन्तिम मौन सर्वोत्कृष्ट है। अपनी मौन साधना को, इसी ओर ले जाने का प्रयत्न होना चाहिए।
एक सज्जन हैं, कुछ प्रौढ़ हो गए हैं ! बड़े रँगीले हैं। कभी बन ठनकर आते हैं तो कुछ मुँह लगे नवयुवक कहते हैं—जी, आप तो बुढ़ापे में भी जवानी के रंग ला रहे हैं । और कभी सीधे सादे ढंग से ही निकल आते हैं, तो भी उन्हें नहीं छोड़ते-बड़े कंजूस हैं। अपने शरीर के लिए भी एक नया पैसा खर्च नहीं करते। ___ दुनिया का यही दस्तूर है। उसका वश चले, तो वह संसार में किसी को टिकने न दे। इस सन्दर्भ में एक कहानी है, मैं कभी-कभी सुनाया करता हूँ। __एक वैष्णव महात्मा तीर्थ यात्रा करने को चले । मार्ग में एक रात कहीं ठहरे, सोते समय पूर्व की ओर सिर करके सो गए। साथ का एक भक्त यात्री बोला-“अरे ! तुम इतने बड़े महात्मा होकर भी पश्चिम की ओर पाँव करके सोए हो?"
महात्मा चौंक पड़े, पूछा-पश्चिम में क्या बात है?
“संत होकर इतना भी नहीं जानते ? पश्चिम में द्वारका है, वहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं।" .
महात्मा ने अपना कान पकड़ लिया। अब पूर्व की ओर पाँव कर दिए, पश्चिम की ओर सिर ! वहीं बैठा हुआ कोई दूसरा यात्री बोल पड़ा-“अरे ! महात्मा जी, यह क्या करते हो? पूर्व में भगवान् जगन्नाथ का धाम है । पूरब में पैर कभी नहीं करना चाहिए, पाप लगता है।" अमर डायरी
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