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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[११] “अगन्धनकुल में उत्पन्न सर्प प्रज्वलित दुःसह अग्नि में कूद जाते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को वापिस चूसने की इच्छा नहीं करते ।
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[१२] हे अपयश के कामी ! तुझे धिक्कार है ! जो तू असंयमी जीवन के लिए वमन किये हुए को पीना चाहता है । इस से तो तेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है ।
[१३] मैं भोजराजा की पुत्री हूँ, और तू अन्धकवृष्णि का पुत्र है । उत्तम कुल में उत्पन्न हम दोनों गन्धन कुलोत्पन्न सर्प के समान न हों । ( अतः ) तू स्थिरचित्त हो कर संयम का पालन कर ।
[१४] तू जिन-जिन नारियों को देखेगा, उनके प्रति यदि इस प्रकार रागभाव करेगा तो वायु से आहत हड वनस्पति की तरह अस्थिरात्मा हो जाएगा ।
[१५] उस संयती के सुभाषित वचनों को सुन कर वह धर्म में उसी प्रकार स्थिर हो गया जिस प्रकार अंकुश से हाथी स्थिर हो जाता है ।
[१६] सम्बुद्ध, प्रविचक्षण और पण्डित ऐसा ही करते हैं । वे भोगों से उसी प्रकार निवृत्त हो जाते हैं, जिस प्रकार वह पुरुषोत्तम रथनेमि हुए ।
अध्ययन - २ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन- ३ - क्षुल्लकाचार कथा
[१७] जिनकी आत्मा संयम से सुस्थित है; जो बाह्य आभ्यन्तर - परिग्रह से विमुक्त हैं; जो त्राता हैं; उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये अनाचीर्ण या अग्राह्य हैं
[१८] औद्देशिक (निर्ग्रन्थ के निमित्त से बनाया गया), क्रीत - साधु के निमित्त खरीदा हुआ, नित्याग्र- निमंत्रित करके दिया जानेवाला), अभिहृत सम्मुख लाया गया, रात्रिभोजन, स्नान, गन्ध, माल्य, वीजनपंखा झेलना ।
[१९] सन्निधि - ( खाद्य पदार्थों का संयच), गृहि - अमत्र गृहस्थ के बर्तन में भोजन, राजपिण्ड, किमिच्छक - 'क्या चाहते हो ?' ऐसा पूछ कर दिया जानेवाला, सम्बाधन - अंगमर्दन, दंतधावन, सम्पृच्छना - गृहस्थों से कुशल आदि पूछना, देहप्रलोकन (दर्पण आदि में शरीर को देखना)
[२०] अष्टापद ( शतरंज खेलना ), नालिका - पासा का जुआ खेलना, छत्रधारणकरना, चिकित्सा कर्म-चिकित्सा करना - कराना, उपानह् - जूते आदि पहनना, ज्योति -समारम्भ( अग्नि प्रज्वलित करना ) |
[२१] शय्यातरपिण्ड-स्थानदाता से आहार लेना, आसन्दी - कुर्सी या खाट पर बैठना, पर्यंक पलंग, ढोलया आदि पर बैठना, गृहान्तरनिषद्या - गृहस्थ के घर में बैठना और गात्रउद्वर्तनशरीर पर उबटन लगाना ।
[२२] गृहि-वैयावृत्य-गृहस्थ की सेवा-शुश्रूषा करना, आजीववृत्तित्ता - शिल्प, जाति, कुल का अवलम्बन लेकर आजीविका करना, तप्ताऽनिर्वृतभोजित्व - अर्धपक्क आहारपानी का उपभोग करना, आतुरस्मरण - आतुरदशा में पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण करना) ।
[२३] अनिर्वृतमूलक-अपक्क सचित्त मूली, श्रृङ्गबेर - अदरख, इक्षुखण्ड- सजीव ईख के टुकड़े, सचित्त कन्द, मूल, आमक फल- कच्चा फल, बीज ( अपक्क बीज लेना व खाना) ।