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नमो नमो निम्मलदसणस्स
४२ दशवकालिक
__ मूलसूत्र-३-हिन्दी अनुवाद
( अध्ययन-१-द्रुमपुष्पिका ) [१] धर्म उत्कृष्ट मंगल है । उस धर्म का लक्षण है-अहिंसा, संयम और तप । जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है उसे देव भी नमस्कार करते है ।
[२] जिस प्रकार भ्रमर, वृक्षों के पुष्पों में से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है तथा पुष्प को पीड़ा नहीं पहुँचाता और वह अपने आपको तृप्त कर लेता है ।
[श उसी प्रकार लोक में जो मुक्त, श्रमण साधु हैं, वे दान-भक्त की एषणा में स्त रहते हैं; जैसे भौरे फूलों में ।
[४] हम इस ढंग से वृत्ति भिक्षा प्राप्त करेंगे, (जिससे) किसी जीव का उपहनन न हो, जिस प्रकार भ्रमर अनायास प्राप्त, फूलों पर चले जाते हैं, (उसी प्रकार) श्रमण भी गृहस्थों के द्वारा अपने लिए सहजभाव से बनाए हुए, आहार के लिए, उन घरों में भिक्षा के लिए जाते है ।
[५] जो बुद्ध पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित हैं, नाना [विध अभिग्रह से युक्त होकर] पिण्डों में रत हैं और दान्त हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण साधु कहलाते है । - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
( अध्ययन-२-श्रामण्यपूर्वक) [६] जो व्यक्ति काम (-भोगों) का निवारण नहीं कर पाता, वह संकल्प के वशीभूत होकर पद-पद पर विषाद पाता हुआ श्रामण्य का कैसे पालन कर सकता है ?
[७] जो (व्यक्ति) परवश होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियों, शय्याओं और आसनादि का उपभोग नहीं करते, (वास्तव में) वे त्यागी नहीं कहलाते ।
[८] त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी (उनकी ओर से) पीठ फेर लेता है और स्वाधीन रूप से प्राप्त भोगों का (स्वेच्छा से) त्याग करता है।
[९] समभाव की प्रेक्षा से विचरते हुए (साधु का) मन कदाचित् (संयम से) बाहर निकल जाए, तो 'वह (स्त्री या कोई काम्य वस्तु) मेरी नहीं है, और न मैं ही उसका हूँ' इस प्रकार का विचार करके उस पर से राग को हटा ले ।
[१०] ‘आतापना ले, सुकुमारता का त्याग कर । कामभोगों का अतिक्रम कर । (इससे) दुःख स्वतः अतिक्रान्त होगा । द्वेषभाग का छेदन कर, रागभाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी हो जाएगा ।