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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा की है - इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, वह स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है । यह उसके अहित के लिए होता है । यह उसकी अबोधि के लिए होता है ।
यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए । भगवान् से या त्यागी अनगारों के समीप सुनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है - 'यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है ।' फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त हुआ, नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और वनस्पतिकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है।
[४७] मैं कहता हूँ - यह मनुष्य भी जन्म लेता है, यह वनस्पति भी जन्म लेती है । यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है । यह मनुष्य भी चेतना युक्त है, यह वनस्पति भी चेतना युक्त है । यह मनुष्य शरीर छिन्न होने पर म्लान हो जाता है । यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । यह मनुष्य भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती है । यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पतिशरीर भी अनित्य है । यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति शरीर भी अशाश्वत है । यह मनुष्य शरीर भी आहार से उपचित होता है, आहार के अभाव में अपचित होता है, यह वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार उपचित-अपचित होता है । यह मनुष्य शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है । यह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है ।
[४८] जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ करता है, वह उन आरंभों/ आरंभजन्य कटुफलों से अनजान रहता है । जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरंभ परिज्ञात है । यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे ।
जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारंभ परिज्ञान होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसात्यागी) मुनि है । ऐसा मै कहता हुँ ।
अध्ययन-१ उद्देसक-६| [४९] मैं कहता हूँ - ये सब त्रस प्राणी हैं, जैसे - अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक । यह संसार कहा जाता है ।।
[५०] मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है । मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ - प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण चाहता है।
[५१] सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता और अपरिनिर्वाण ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं । मैं ऐसा कहता हूँ ।
ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब ओर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं ।
[५२] तू देख, विषय-सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते हैं ।
त्रसकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित रहते हैं ।