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गाया संख्या विषय
४६१५
४६१६ ४६१९ संस्तारक कोई ले न जाए, अतः वसति को सर्वथा शून्य न करने का निर्देश। वैसा करने पर तद्विषयक प्रायश्चित्त वसतिपाल के रूप में बाल, ग्लान या अव्यक्त मुनि को स्थापित करने पर प्रायश्चित्त ।
४६२०,४६२१ वसति को सुरक्षित करने पर संस्तारक का
विनाश ही नहीं होगा और वसतिपाल स्थापनीय से प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता कैसे रहेगी? शंका और उसका समाधान ।
४६२२-४६२४ मुनि की निश्रा में संस्तारक को किसी के ले जाने पर समझाने के लिए धर्मकथा आदि करने की विधि । द्रमक को भय दिखाने का निर्देश । चोरी करना इहलोक और परलोक के लिए अहितकारी।
४६२५
सूत्र २७
संस्तारक के गुम होने अथवा किसी के ले जाने पर अप्रमाद के लिए गवेषणा समाचारी का निर्देश |
४६२६, ४६२७ पिता, पुत्र आदि द्वारा संस्तारक लिए जाने पर उनके अभिभावकों से कहे। न माने तो महत्तर को कहने का विधान ।
४६२८
संस्तारक ग्रहण करने के लिए पहले भोजिक को, फिर आरक्षक को, अंत में राजा तक पहुंचाने का निर्देश |
राजा को शिकायत अंत में क्यों ?
४६२९ ४६३०,४६३१ दृष्ट संस्तारक को अर्पित करने की विधि। अदृष्ट संस्तारक की गवेषणा विधि।
४६३२
४६३३
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संस्तारक के चोर को पकड़ने के लिए आभोगिनी विद्या आदि के प्रयोग का निर्देश।
४६३४-४६३६ भोजिक आदि के द्वारा गवेषणा न करने पर स्वयं साधु द्वारा व्यक्ति को हराने का निर्देश।
४६३७-४६३९ संस्तारक को प्राप्त करने की विधियां । सचित्त पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त संस्तारक को ग्रहण कर मूल स्वामी को देने की विधि । न मिलने पर दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना ।
४६४०-४६४८ संस्तारक आदि नष्ट या अपहृत हो जाने पर स्वामी यदि उसकी मांग पर अड़ा रहे तो उसको समझाने अथवा अन्य प्रान्त उपकरण देकर
गाथा संख्या विषय
४६४९
४६५०
४६५१
४६५२
४६५३
४६५४ ४६५५
का कथन ।
अवग्रह और प्रव्रजित पुरुष के प्रकार ।
शैक्ष के दो प्रकार । जानने वाले शैक्ष के चार प्रकार ।
४६५६,४६५७ वास्तव्य शैक्ष के पांच प्रकार तथा उनका स्वरूप। ४६५८ आगन्तुक शैक्ष के भी क्रमशः प्रकार । ४६५९-४६६२ वास्तव्य और वाताहृत शिष्य का द्वार गाथाओं से वर्णन |
४६८३
बृहत्कल्पभाष्यम्
४६६३-४६७२ रूपज्ञ, शब्दज्ञ, उभयज्ञ और यशः कीर्तिज्ञ वास्तव्य तथा वाताहृत शैक्षविषयक चार नवकनवभंगी तथा तद्विषयक अवग्रह का स्वरूप।
४६७३-४६७६ पूर्व परिचित साधुओं के विहरण के पश्चात् दीक्षा
लेने का इच्छुक शैक्ष यदि उन्हीं के पास प्रव्रज्याग्रहण करना चाहता है तो आगन्तुक श्रमणों का उसको प्रतिबोध |
४६७७-४६७९ ज्ञापित और इतर वाताहत और क्षेत्रिकों की यशः कीर्ति को नहीं जानने वाले वास्तव्य शैक्ष के चार नवक आगन्तुक आचार्य द्वारा उनको क्षेत्रिक आचार्य के पास प्रेषित करने की विधि। न भेजने पर प्रायश्चित्त ।
४६८०-४६८२ स्वग्रामविषयक और परग्रामविषयक पुरुष के छह-छह प्रकार। मुण्डित पुरुष और स्त्री, ज्ञायक और ज्ञापित तथा शिखा वाले शैक्ष के चार द्वादशक।
अव्याहत, यावज्जीव और पराजित तीनों शैक्षों के स्वग्राम परग्राम विषयक बारह प्रकार । ऋजु अऋजु आचार्य का लक्षण |
४६८४
उसको संतुष्ट करने का उपक्रम ।
मुनि के लिए संस्तारक गवेषणा नहीं करने के आपवादिक कारण। ओग्गह-पदं सूत्र २८
साधुओं के विहरण करने के पश्चात् पूर्व क्षेत्र कितने समय तक अवग्रहयुक्त रहता है, उसकी प्ररूपणा ।
शैक्षविषयक अवराह की उत्पत्ति की संभावना । अवग्रह का चिंतन कब ?
क्षेत्रावग्रह के कालप्रमाण की अवधि । भिन्नभिन्न आचार्य की मान्यता । आचार्य द्वारा विधि
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