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द्विवेदी-युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ १६ नीति की आलोचना की है। इसी प्रकार, उस युग की रचनाओं के अनुशीलन से इस बात का पता चलता है कि उनके रचयिता 'नई रोशनी के विष' से अपने पाठकों को यथासाध्य बचाने की चेष्टा करते थे और वे जानते थे कि 'हमारी हजारों वर्ष से प्रचलित श्रेणीबद्ध रीति-नीति इस अंगरेजी-शिक्षा के प्रभाव से उखड़ी जाती है। उन्हें समसामयिक नवयुवकों का कोट-बूट और चक्करदार टोपी पहनना
और उससे ही अपनी शोभा समझना अप्रिय लगता था। वे नहीं चाहते थे कि लोग 'अपने देश की सनातन रीतों' को बुरा कहे, नाम के आगे 'मिस्टर' शब्द का लगाना प्रतिष्ठा का हेतु मानें, कमिटियों और सभाओं में अकड़-अकड़ कर लेक्चर पढ़ें, देश में बनी बढिया-से-बढ़िया चीजों को देख घिनायें और विदेशी चीजों के लिए एक का छह दाम देकर भी सम्पूर्ण फैशन की नाक उसी को जानें।' 3 'श्रीमदंग्जदेव महा महा पुराण' का लेखक सूटजी को अपना प्रवक्ता बनाकर कहता है :४
प्रात नाम अंग्रेज उचारे । अच्छा भोजन तुरतहि पावे । जो अंग्रेज मुख दर्शन करे। त्रिविध ताप ताके हरि हरे । जो अंग्रेज करहि सम्बादा। ताके बेगहि मिटें विषादा । जो अंग्रेज पद धूलि परै । तुरतहि भवसागर को तरै । जो अंग्रेज प्रसादहि पावै । सो बैकुण्ठ धाम को जावै । जो अंग्रेज को डाली देवे । सो ट्रेजरी की लाली लेवे । जो अंग्रेज को गाली खाय । कभी न किसमत खाली जाय ।...
१. "हुआ कोई नहीं हिन्दी का मददगार कभी।
जबाँ उर्दू का अब रुतवा बड़ा इतना अफसोस । वो पायेगी अदालत से भला फिटकार कभी ॥ रहा है फैल उर्दू का यहाँ वह जोर औ शोर । सुनेगी हिन्दी की फर्याद क्यों सरकार कभी ॥ गये हैं भूल हिन्दू भी जबाँ अपनी को खास । उर्दू करती है अदालत में हजारो गल्ती । तो भी घटता वहाँ उसका जरा इतबार नहीं।... -भारतेन्दु, पुस्तक २, अंक ६, ७, ८, सन् १८८४ ई०, पृ० १०७ (हिन्दी की हालत), पृ० १०८। २. हिन्दी-प्रदीप, १ सितम्बर, १८७८ ई०, पृ० ८ । ३. उपरिवत्, १ फरवरी, १८७९ ई०, पृ० १३ । ४. भारतेन्दु, पुस्तक २, अंक ३, ८ जून, १८८४ ई०, पृ० ४६ से 'श्रीमदंग्रेजदेव
महा-महापुराण' की कथा का पुनः आरम्भ, पृ० ४६ ।