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१२० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
सुगमता के साथ पार हो जाते हैं । अथक परिश्रम से उन्होंने हिन्दी गद्य के धुंधले हीरे को लेकर अपनी प्रतिभा की खराद पर बार-बार चढ़ाया और तबतक उसे चढ़ाते ही चले गये, जबतक उसके अनन्त पहलों से अभूतपूर्व आभा न जगमगाने लगी । हिन्दी गद्य को परिष्कृत, परिमार्जित और संस्कृत बना दिया । उसकी शैली में अराजकता के स्थान में एक नियमिन सत्ता उन्हीं के प्रयत्न से स्थापित हो गई । भावी इतिहास - लेखक सुव्यवस्थित गद्य की चिरस्थायी शैली का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित नायक द्विवेदीजी को ही स्वीकार करेगा ।" "
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यदि आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की गद्य रचनाओं को साहित्यिक महत्ता एवं गुणों की दृष्टि से परखा जाय, तो अधिकांशतः निराश होना पड़ेगा । उनकी अधिकतर गद्यकृतियाँ अनुवाद है, कुछ दूसरों की रचनाओं के सरल विश्लेषण हैं, थोड़े आलोचनात्मक निबन्ध हैं और शेष साधारण विविध विषयों पर लिखे गये टिप्पणी जैसे लोकप्रिय निबन्ध है । इन सबका अपना साहित्यिक महत्त्व नही के बराबर है । परन्तु इनमें भाषा और शैली के जिस रूप के दर्शन होते हैं, वही द्विवेदीजी की ऐतिहासिक महत्ता का कारण है । हिन्दी गद्य इतिहास मे वर्णन - शैली की अपूर्व प्रवाह से भरी हुई हृदय को आकृष्ट और विमुग्ध करनेवाली जिस कला का प्रवर्त्तन उन्होंने किया, वही उनकी हिन्दी - जगत् की सबसे बड़ी देन है । भाषा के निखरे हुए रूप और शैली की आकर्षक छटा द्वारा द्विवेदीजी ने हिन्दी गद्य का श्रृंगार किया । उनके समय में साधारण जनता के बीच हिन्दी भाषा के प्रचार की समस्या के साथ यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ था कि जनरुचि के अनुकूल किस प्रकार की शैली का प्रयोग किया जाय ? द्विवेदीजी ने इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए 'क्या लिखा जा रहा है', इसकी चिन्ता कम की तथा 'कैसे लिखा जाय' की समस्या का समाधान आजीवन किया और लिखने की अपूर्व शैली को निर्मित करने में कृतकार्य भी हुए । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी इस उपलब्धि एवं महत्ता को ऐतिहासिक गौरव प्रदान किया है :
"सच पूछा जाय, तो संसार के आधुनिक साहित्य में यह एक अद्भुत-सी बात है कि एक आदमी अपने 'क्या' के बल पर नहीं, बल्कि 'कैसे' के बल पर साहित्य का स्रष्टा हो गया । ससार बहुत बड़ा है, उसका साहित्य भी छोटा नहीं है, इसलिए यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि यह घटना केवल हमारे साहित्य में ही हुई है, पर इतना निश्चित है कि ऐसा होता बहुत कम है ।
१. आचार्य शिवपूजन सहाय : 'शिवपूजन रचनावली', खण्ड ४, पृ० १६८-६९ । २. डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय : 'आधुनिक हिन्दी - साहित्य', पृ० ५८ ।