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पंचम अध्याय
आचार्य द्विवेदीजी की गद्यशैली (निबन्ध एवं आलोचना )
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में ही हिन्दी गद्य में प्राण-प्रतिष्ठापन का कार्य धीरे-धीरे प्रारम्भ हो गया था। पं० सदल मिश्र, सदासुखलाल, लल्लूलाल, इंशा अल्ला खाँ और रामप्रसाद निरंजनी की लेखनी का साहचर्य पाती हुई हिन्दी की गद्यधारा सन् १९५० ई० के आसपास उर्दू, संस्कृत और अँगरेजी के त्रिकोण में फँस गई । राजा लक्ष्मणसिंह और शिवप्रसाद सितारे हिन्द की क्रमश. संस्कृत- बहुल एवं उर्दूमा भाषा के स्थान पर हिन्दी गद्य को पुष्ट स्वरूप देने का काम सबसे पहले भारतेन्दु श्रीहरिश्चन्द्र ने किया । तयुगीन भाषा विवाद को दूर करने की दिशा मे भारतेन्दु ने सरल भाषा के प्रयोग पर बल दिया और गद्य की विषयानुरूप शैलियों का प्रवर्तन किया । परन्तु, भाषा-संस्कार एवं गद्यशैली के परिष्कार के क्षेत्र में भारतेन्दु की अपनी सीमाएँ थीं । वे स्वयं परम्परित लेखन से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ सके थे और उनके समक्ष भाषाशैली का कोई आदर्श मानदण्ड भी नहीं था । बोलचाल की भाषा को ही अधिकांशतः अभिव्यक्ति का माध्यम मानते हुए उन्होने गद्यशैली के निर्माण की दिशा में जो कुछ भी किया, वह एक प्रशंसनीय प्रयास ही कहा जा सकता है । परन्तु, दुर्भाग्यवश भारतेन्दु के बाद हिन्दी का गद्य शैली को सजीवता प्रदान करनेवाला उनकी परम्परा में बालमुकुन्द गुप्त के अतिरिक्त कोई और नहीं हुआ । सम्पूर्ण भारतेन्दु-युग की गद्यशैली को गद्य-निर्माण की दिशा मे किया गया एक श्लाघनीय प्रयास ही कहा जायगा, उसे किसी युगनिर्मिति के रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता है । डॉ० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने भारतेन्दुयुगीन गद्यशैली की प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में लिखा है :
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"आलोच्यकाल में न तो व्रजभाषा का प्रभाव ही बिलकुल दूर होने पाया था और न भाषा वर्त्तमान काल की भाँति परिष्कृत और परिमार्जित ही हो पाई थी । स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं में व्रजभाषा के प्रयोग और अशुद्धियाँ मिलती हैं । वास्तव में, आलोच्य काल का महत्त्व साहित्य का नये-नये विषयों की ओर प्रवृत्त होने में है, न कि भाषा के परिष्कृत और प्रांजल रूप में । यह दूसरा कार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के हाथ से होना बदा था ।" "
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१. डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय : 'आधुनिक हिन्दी - साहित्य', पृ० ५९ ।