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... कविता एवं इतर साहित्य [ २३३ अद्भुत मेरी सुन्दरताई, मूत्ति मनोहर मैंने पाई।' क्रियापद-सम्बन्धी दोष के दो उदाहरण द्रष्टव्य है :
नहीं कहीं भी भुवनान्तराल में,
दिखा पड़े है तब रूपरम्यता ।२ और: जिनकी कीत्तिध्वजा अभी तक
सतत फिरै हैं फहरानी। लिंगदोष का तो एक ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा :
नूतन चित्र-चरित्र प्रसार,
करके उनकी चित्त अनुसार ४ कहीं तुक के मोह और कही भाषा में कसावट लाने के लिए द्विवेदीजी ने संज्ञाओं “को ही क्रियापद में परिणत कर देने की भूल कई बार की है । यथा :
काम कामिनी को ले छाया
जिसे चतुर्मुख ने निर्माया।५ और : सुषमा सर उसने अवगाहा
और : सुरसरि ने इनको स्वीकारा । ऐसे ही विविध व्याकरणगत दोषो से व्याप्त होने के साथ-साथ द्विवेदीजी की कविता का प्रधान अवगुण है उसकी रसहीनता एवं शैथिल्य । यादर्श खड़ी बोली में तुकपूर्ण काव्य-रचना करने के आग्रह ने द्विवेदीजी की कविताओं में अद्भुत शैथिल्य ला दिया है। अपने आदर्शों को पूत्ति के लिए सचेष्ट होने के कारण द्विवेदीजी अपनी रचनाओं को समुचित कवित्वपूर्ण आभा नहीं प्रदान कर पाये हैं। डॉ० रामकुमारसिंह ने ठीक ही लिखा है : ___ "द्विवेदीजी के अनुवादों के छोड़कर अन्य लगभग सभी मौलिक रचनाएँ विचारों अथवा भावों की पद्य में परिणति-मात्न है। उनमें आनन्दस्वरूप रसों की निष्पत्ति करनेवाले गुणों, शब्द एवं अर्थ-सौन्दर्यो का नितान्त अभाव है। उनमें उद्बोधनात्मक कविताओं के अतिरिक्त अन्यान्य गति और लय सरलता तथा माधुर्य
१. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३८९ । २. उपरिवत्, पृ० २९१ । ३. उपरिवत्, पृ० २८१ । ४. उपरिवत्, पृ० ३००। ५. उपरिवत्, पृ० ३७७ । ६. उपरिवत्, पृ० ३८६ । ७. उपरिवत्, पृ० ४१५ ॥