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कविता एवं इतर साहित्य [ २३५ 'कुमारसम्भव', 'मेघदूत' एवं 'किरातार्जुनीयन' जैसे ख्यात संस्कृत ग्रन्थों का खड़ी बोली- गद्य में भावार्थबोधक अनुवाद द्विवेदीजी ने प्रस्तुत किया है । इन अनुवादों की काया गद्य में होने के कारण कथात्मक हो गई है । इन्हे पढ़ते समय 'महाभारत', 'रघुवंश', 'कुमारसम्भव', 'किरातार्जुनीयम्' आदि की कथा का ही बोध होता है एवं इन अनुवादों का साग परिवेश कथा-साहित्य के अनुकूल ही है । इसी तरह, द्विवेदीजी द्वारा रचित उन कतिपय निबन्धों की भी गणना कथा-साहित्य के अन्तर्गत की जा सकती है, जिनकी चर्चा कथात्मक निबन्ध की संज्ञा देकर आलोचक कर आये है । ऐसे निबन्धों की कोटि में 'रसज्ञरंजन' के अन्तर्गत संकलित 'हससन्देश " और 'नल का दुस्तर दूतकार्य' जैसी रचनाओ की चर्चा की जा सकती है। इन दोनों ही निबन्धों का रचना - विधान एवं स्वरूप कथात्मक है और द्विवेदीजी के कथासाहित्य की सूची में इनकी गणना की जा सकती है । यही स्थिति नारायण भट्ट के संस्कृत - नाटक 'वेणीसंहार' के द्विवेदीजी द्वारा किये गये आख्यायिका जैसे भावार्थबोधक अनुवाद की भी है । इसका स्वरूप भी कथामय है । स्पष्ट है, यद्यपि द्विवेदीजी ने कथा - साहित्य के नाम पर किसी मौलिक एवं स्वतन्त्र रचना की सृष्टि नहीं की, तथापि उनके भावार्थबोधक गद्यानुवादों तथा कथात्मक निबन्धों में कथापरक तत्त्वों एवं तत्सम्बन्धी द्विवेदीजी की प्रतिभा की झलक मिल जाती है ।
नाटक :
द्विवेदीजी ने नाटकों की रचना में भी विशेष रुचि नहीं दिखलाई । 'सरस्वती' में प्रकाशित व्यंग्य - चित्रों में अवसर मिलने पर वे साहित्य की इस विधा की हीनता की ओर संकेत करते थे, परन्तु उनकी रचनात्मक प्रतिभा इस दिशा में सक्रिय न हो सकी। डॉ० शत्रुघ्न प्रसाद के शब्दों में :
" एक ओर वे खड़ी बोली- कविता के परिमार्जन तथा परिवर्द्धन के लिए निर्देशन देते रहे और दूसरी ओर गद्य के परिमार्जन तथा विकास के लिए प्रयत्नशील हुए । मुख्य रूप से वे गद्य के संस्कार, कविता के विकास तथा आलोचना- साहित्य की समृद्धि की ओर उन्मुख हुए । कथा-साहित्य एवं निबन्ध पर भी उनकी दृष्टि रही । परन्तु, नाटकों के विकास पर वे ध्यान नहीं दे सके। उन्होंने उपेक्षा नहीं की । 'नाट्यशास्त्र' प्रमाण है । 'सरस्वती' के 'पुस्तक-परीक्षा' स्तम्भ में नाटकों की परीक्षा भी द्रष्टव्य है । पर वे नाटकों की ओर आकृष्ट नहीं थे । यह कहा जा सकता है कि अनजाने में नाट्यसाहित्य उपेक्षित रह गया ।"१
१. डॉ० शत्रुघ्न प्रसाद : 'द्विवेदीयुगीन हिन्दी नाटक', पटना- विश्वविद्यालय की पी-एच्० डी० उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध, पृ०७३.