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२३४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आदि विशेषताएँ मिलती ही नही । व्यंग्य एवं उद्बोधनात्मक रचनाओं में केवल प्रवाह और ओजस्विता कभी-कभी दिखलाई पड़ जाती है। माधुर्य को तो द्विवेदीजी की नैतिकता साफ हजम कर गई है।"१
निश्चय ही, द्विवेदीजी के नेतृत्व में काव्य की मनोहारिता का ह्रास हुआ है। वे आदर्शवाद के पोषक, प्रचारक तथा काव्य के प्रोत्साहक थे। उपदेशों और घोषणाओ से खड़ी बोली का काव्य अपनी मनोरमता एवं रसात्मकता खो बैठा। द्विवेदीजी की निजी कविताएँ भी काव्यगत सौन्दर्य एवं सरलता से हीन प्रतीत होती है। उनमें कविता कही जाने योग्य किसी तत्त्व के दर्शन नहीं होते। अधोलिखित पंक्तियाँ. उदाहरणार्थ द्रष्टव्य है, जिनमें काव्यगत सौरस्य का लेशमात्र नहीं :
देखो यहाँ सकल बालक ये खड़े हैं, छोटे अनेक दस-पाँच कहीं बड़े हैं। हे हे दयालु इनका कर थाम लीजै,
कीजै कृपा अब इन्हें मत छोड़ दीजै ।२ काव्यगत शैथिल्य एवं गद्यवत् पद्यसर्जन की इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप द्विवेदीजी काव्य-रचना के क्षेत्र में सफल नहीं हो सके। निष्कर्षतः, डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब्दों में कहा जा सकता है :
"द्विवेदीजी के अपने काव्य में उनकी देशभक्ति, भाषा-भक्ति, जनता-भक्ति आदि उच्च भावनाओं का प्रसार हमें प्रभावित करता है, यद्यपि उनकी अभिव्यक्ति में कवि को सफलता नहीं मिली है।"3 कथा-साहित्य : ___ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपने समसामयिक कहानी-उपन्यास जैसी कथात्मक विधाओं को अपनी लेखनी का उपादान नहीं बनाया। भाव एवं रचना-पक्ष की दृष्टि से तत्कालीन कथा-साहित्य द्विवेदीजी से उस सीमा तक प्रभावित नहीं है, जिस सीमा तक निबन्ध-रचना, कविता और भाषा का संचालन द्विवेदीजी के निर्देशानुसार होता था। कथा-साहित्य के नाम पर द्विवेदीजी ने स्वयं घोषणा करके कुछ नही लिखा है। फिर भी, उनकी कतिपय रचनाओं में कथा का आनन्द मिल जाता है। इस क्रम में सर्वप्रथम द्विवेदीजी द्वारा संस्कृत-महाकाव्यों के गद्य में किये गये भावार्थबोधक अनुवादों की चर्चा की जा सकती है। 'महाभारत', 'रघुवंश',
१. डॉ. रामकुमार सिंह : 'आधुनिक हिन्दी-काव्यभाषा', पृ० ४०६ । २. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (सं०) द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३६२ ।। ३. डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय : 'आधुनिक हिन्दी कविता : सिद्धान्त और
समीक्षा', पृ० १२४ ।