Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 258
________________ २४४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व भर में काँगरेस-सरकार एवं क्रान्तिकारी दल ने जैसी चहल-पहल मचा रखी थी, उसका भरपूर प्रभाव साहित्य पर पड़ा। परन्तु, देश की स्वतन्त्रता एवं अँगरेजसरकार के साथ चल रहे संघर्ष को यथोचित वाणी नही मिल सकी। जिस प्रकार भारतेन्दु एवं उनके सहयोगी साहित्यकारो ने सन् १८५७ ई० के गदर को साहित्य का विषय नहीं बनाया, उसी प्रकार द्विवेदीजी एवं उनके अनुकरण-कर्ता साहित्यसेवियो ने भी स्वातन्त्र्य-आन्दोलन को उसके विस्तार के अनुरूप अभिव्यक्ति नहीं दी। युगवेत्ता होते हुए भी द्विवेदीजी सरकार के कोपभाजन हो जाने के सम्भावित भय से राष्ट्रीय आन्दोलनों को पूरी तरह अपना समर्थन नहीं दे सके। परन्तु, उस युग की सामाजिकसास्कृतिक अवनति पर उनकी दृष्टि गई। भारतेन्दु-युग से ही विविध सामाजिक कुरीतियों एवं सांस्कृतिक अनाचारों के विरुद्ध साहित्यिक आन्दोलन छिड़ गया था। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन प्रभृति समाजसुधारको की विचारधारा से भारतेन्दु का मत मेल खाता था। द्विवेदी-युग तक भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक दुर्गुणों में सुधार का सारा आन्दोलन आर्यसमाज के नेतृत्व में चला आया था। आर्यसमाज के साथ पूर्ण सहमति न रहते हुए भी द्विवेदीजी एवं उनके युगीन साहित्यकारों ने समाज और धर्म में व्याप्त कुरीतियों के अन्त को महत्त्व दिया। बाल-विवाह, विधवा-विवाह, नारी-शिक्षा, पनाना, अछूतोद्धार जैसे विषयों पर साहित्य-लेखन हुआ। इस काल के सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक धरातल पर आदर्शवाद के दर्शन होते हैं । प्राचीन भारत की गौरवगाथा दुहराकर जिस प्रकार, आर्यसमाज के प्रचारक सांस्कृतिक स्तर पर आदर्शों को प्रस्तुत कर रहे थे, उसी प्रकार द्विवेटी-युगीन साहित्यसेवियों ने भी अतीत का गौरवगान करके वर्तमान की अधोगति के सम्मुख उच्च आदर्श की स्थापना की । अतीत का अंकन एवं इतिवृत्त प्रस्तुत करने का मोह इस अवधि के प्रत्येक कवि-लेखक में परिलक्षित होता है। आर्थिक दृष्टि से भी भारत की स्थिति उन दिनों अच्छी नहीं थी। भारत में सम्पूर्ण ब्रिटिश-शासन की कथा ही शोषण की कथा है। द्विवेदी-युग भी इसका अपवाद नहीं था। कर, शोषण एवं अकाल से त्रस्त जनता के ऑसू पोंछने एवं आर्थिक विषमता के खिलाफ नारे लगाने का किचित् कार्य साहित्यसेवियों ने भी किया। इस युग की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति जितनी अराजकतापूर्ण थी, लगभग वैसी ही अव्यवस्था भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी व्याप्त थी। आचार्य द्विवेदीजी के आगमन के पूर्व हिन्दी-साहित्य का लेखन भाषा की व्यवस्था एवं विषयों की संकीर्णता से ग्रस्त था। कवि व्रजभाषा में ही काव्य-रचना के लिए कृतसंकल्प थे एवं गद्यकारों ने व्याकरण के नियमों की अवहेलना करके लिखना ही अपना धर्म बना लिया था। साथ ही, प्राचीन काल से चली आ रही भक्ति एवं घोर शृगारिकता की विषय-सीमा से मुक्त होने के लिए हिन्दी-साहित्य छटपटा रहा था। इसमें सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी अपने सामयिक

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