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२३२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
व्यतिरेक : रूपवती यह रम्भा नारी,
सुरपति तक को यह अति प्यारी । रति, धृति भी दोनों बेचारी,
इसे देख मन में हैं हारी।' अर्थान्तरन्यास : सौम्यस्वरूप शिव ने सिर पै बिठाया,
सर्वप्रकार अति आदर भी दिखाया । तो भी महाकृश कलाधर की कला है,
हा हा ! पराजय नही किसको खला है । निश्चय ही, इन उदाहरणों में अलंकार की उपस्थिति लक्षित होती है, फिर भी इन कविताओं में न कथन की मनोरम भंगिमा है और न विशेष काव्यगत चमत्कार ही दीख पड़ता है। इसी भाँति, द्विवेदीजी ने अपनी कविताओं में कहावतों और मुहावरों का भी प्रयोग किया है। इनके उपयोग से कविता में किंचित् सजीवता आई है, परन्तु इनका प्रचुर उपयोग नही हुआ है । उनके सम्पूर्ण काव्य में मात्र 'कान्यकुब्ज-अबला-विलाप' और 'ठहरौनी' को ही कहावतों-मुहावरों के सजीव प्रयोग की दृष्टि से उल्लेखनीय माना जा सकता है । इन दोनों ही कविताओं में मार्मिक प्रसंगों की मुहावरों के माध्यम से व्यजना की गई है । यथा :
___ पैदा जहाँ हुई हम घर में सन्नाटा छा जाता है ।
बड़े बड़े कुलवानों का तो मुंह फीका पड़ जाता है।
और :
___ कन्या-कुल को भांति-भांति से पीड़ित हम नित करते हैं।
मुनियों के वंशज होने का फिर भी दम भरते हैं।" फिर भी, अधिकांशतः द्विवेदीजी की कविताओं में उच्च कोटि के कवित्व एवं सजीवता का अभाव खलता है। भाषा एवं व्याकरण का अपने युग में नेतृत्व करनेवाले आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की कविताओं में भाषा और व्याकरण-सम्बन्धी कई दोष दृष्टिगत होते हैं। भाववाचक संज्ञापद सर्वनाम, शब्द-सन्धि, क्रियापद, लिंग, आदि के अनुचित प्रयोग तथा दूरान्वय, शैथिल्य आदि से सम्बद्ध विभिन्न दोष उनकी कविताओं में दीखते हैं। प्रारम्भिक रचनाओं को द्विवेदीजी भाषा-संकरता तथा विकृत शब्दों (मिष, मूरखताई, सुहागिलपन आदि) के अनावश्यक प्रयोग से नहीं बचा सके हैं । यथा :
१. देवीदत्त शुक्ल (सं०) : 'द्विवेदी काव्यमाला', पृ० ३७८ । २. उपरिवत्, पृ० ३०३। ३. उपरिवत्, पृ० ४२५ । ४. उपरिवत्, प. ४३६ ।