Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 245
________________ कविता एवं इतर साहित्य २३१. इष्ट नहीं है । तुक मिलाने का मोह उनकी कविताओं का सौन्दर्य, गति एवं लय सब कुछ हरण कर लेता था, परन्तु तुक मिलाकर ही वे कविताएँ लिखते थे । उनकी कविताओं में केवल 'हे कविते' ही अन्त्यानुप्रास-रहित है । स्वयं तुकपूर्ण कविता का विविध छन्दों में सर्जन करने के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी ने अन्य कवियों को भी विविध छन्दों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। द्विवेदीजी ने भावना के रसात्मक आख्यान को कविता का शोभाधायक तत्त्व माना है। वे रस की काव्यात्मा के रूप में निष्पत्ति करने में असमर्थ रहे हैं । 'गर्दभकाव्य', 'ग्रन्थकार-लक्षण', 'टेसू की टाँग', 'ठहरौनी' आदि कविताओं में हास्यरस तथा व्यंग्य की सुन्दर व्यंजना मिलती है, परन्तु उनकी अधिकांश कविताओं में काव्य-सौन्दर्य का वास्तविक विन्यास नहीं दीख पड़ता है। डॉ० आशा गुप्त ने स्पष्ट किया है : "द्विवेदीजी के काव्य में विषय की प्रधानता एवं रचना के सप्रयोजन होने से वे काव्योचित गुण न आ सके, जो सहृदय पाठक को आह्लादित कर सकते । अधिकांश कविताएँ भावों के वाचन-मान हैं, न उनमें शब्द-सौन्दर्य है और न अर्थ की रमणीयता ।" इसी कारण, द्विवेदीजी की कविताओं में अलंकार-योजना भी समर्थ एवं स्पष्ट नहीं हो सकी है । कहीं-कहीं यमक और अनुप्रास का प्राचीन परिपाटी के अनुकूल प्रस्तुतीकरण हुआ है। यथा : __ वृत्त्यनुप्रास : नाभि नवल नीरज दिखलाती, स्तन-तट से पट को खिसकाती। यमक : गौरी गौरीशिखर सुधारी। इसी तरह, कतिपय अन्य अलंकारों के भी प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। उदाहरण स्वरूप : उपमा-विषय : वरद नील नीरद समकाला। प्रतीप : इसके भृकुटी-भय का मारा, लोप शरासन है बेचारा। इसके अधर देख जब पाते, शुष्क गुलाब फूल हो जाते ५ १. डॉ० आशा गुप्त : 'खड़ी बोली-काव्य में अभिव्यंजना' पृ० २४९ । । २. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३७५ । ३. उपरिवत्, पृ० ४०५। ४. उपरिवत्, पृ० ३८५। ५. उपरिवत्, पृ० ३७८ ।

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