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२१८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्त्तृत्व
ऐसी निर्देशात्मक कविता का एक सुन्दर उदाहरण उनकी 'ग्रन्थकारों से विनय " शीर्षक कविता है । इसमें नितान्त काव्यत्व- हीन शैली में द्विवेदीजी ने हिन्दी के लेखकों को आदेश दिया है :
इंगलिश का प्रत्यसमूह बहुत भारी है, अति विस्तृत जलधि- समान देहधारी है । संस्कृत भी सबके लिए सौख्यकारी है, उसका भी ज्ञानागार हृदयहारी है । इन दोनों में से अर्थरत्न ले लीजै,
हिन्दी को अर्पण उन्हें प्र ेमयुक्त कीजे । '
स्पष्ट है कि कविता के माध्यम से द्विवेदीजी ने न केवल हिन्दी की दुर्दशा की ओर संकेत किया और साहित्यकारों का मार्गनिर्देश किया, अपितु इन्ही के द्वारा उन्होंने अपनी साहित्यिक मान्यताओं का भी प्रस्तुतीकरण किया । 'हे कविते' शीर्षक रचना सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से उनकी सर्वश्र ेष्ठ कविता है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है :
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' हे कविते' एक पद्यबद्ध निबन्ध है । इसमें कविता के स्वरूप का निर्धारण किया गया है । द्विवेदीजी की दृष्टि में कविता क्या है और क्या नही है, ये दोनों ही बातें उसमे स्पष्ट हो गई है।
' हे कविते' के आधार पर ही कहा जा सकता है कि द्विवेदीजी ने भावना के रसात्मक आख्यान, लोकहित और भक्ति - प्रेरणा को काव्य में आन्तरिक शोभा का विधान करनेवाला तत्त्व माना है । रसवादी द्विवेदीजी की काव्य-सम्बन्धी मान्यताओं का निष्कर्ष इन पंक्तियों मे अभिव्यक्त हुआ है :
सुरम्यता ही कमनीय कान्ति है, अमूल्य आत्मा रस है मनोहरे । सरीर तेरा सब शब्द मात्र है, नितान्त निष्कर्ष यही, यही, यही ।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि द्विवेदीजी ने अपनी अनेक कविताओं में भाषा और साहित्य की समस्याओं का उपस्थापन किया है, समस्याओं के समाधान का मार्ग सुझाया है। और अपनी मान्यताओं को भी अभिव्यक्ति की है। जिस प्रकार वे अपने समसामयिक साहित्यक वातावरण से भली भाँति परिचित थे, उसी प्रकार तत्कालीन सामाजिक.
१. 'सरस्वती', फरवरी, १९०५ ई०, पृ० ५३ ।
२. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : 'हे कविते की कविता', 'साहित्य-सन्देश',
नवम्बर, १९३९ ई०, पृ० ९१ ।
३. 'सरस्वती', जून, १९०१ ई०, पृ० २०० ॥