Book Title: Acharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Author(s): Shaivya Jha
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 239
________________ कविता एवं इतर साहित्य [ २२५ क्षेत्र में व्याप्त विविध कुरीतियों का विरोध किया। विधवा-विवाह को अपनी 'बालविधवा-विलाप' कविता में सगत बतलाकर और कान्यकुब्ज ब्राह्मण-समाज की अवनति का कई कविताओं मे निर्देश कर उन्होने परम्परित धर्मध्वजियों को कुपित कर दिया था। 'कथमहं नास्तिकः' शीर्षक संस्कृत-कविता में द्विवेदीजी ने उन सारे धर्माचार्यों की पोल खोली है, जो उन्हे नास्तिक कहा करते थे। इस कविता मे उनकी धार्मिक विचारधारा का सर्वाधिक प्रखर एवं समन्वित सुधारवादी रूप मिलता है। कुल मिलाकर, द्विवेदीजी ने अपनी ईश्वरीय सत्ता के प्रति आस्था तथा धार्मिक कुप्रथाओं के परिष्कार की अभिलाषा को अपनी अध्यात्म-सम्बन्धी कविताओं में अभिव्यक्त किया है। भक्तिपरक रचनाओं के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी ने कई सौन्दर्यपरक कविताओं की भी रचना की। सौन्दर्य के क्षेत्र में उन्होंने नारी-मौन्दर्य और प्रकृति-सौन्दर्य दोनों का उपस्थापन अपनी कविता में किया है। नारी-सौन्दर्य के चित्रण की दिशा मे उनकी निजी शृगार-वर्णनसम्बन्धी नैतिक मान्यताएँ सदा बाधक बनी है । डॉ० सुरेशचन्द्र गुप्त ने लिखा है : "द्विवेदीजी काव्य में शृगार रस को स्थान न देने के प्रति प्रायः सजग रहे हैं, किन्तु रविवर्मा के चित्रों पर आधारित कविताओं एवं 'विहार-वाटिका' में वे अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह नही कर पाये है। इन कविताओं में नायिका के हाव-भाव, नखशिख-सौन्दर्य, वसनभूषण-सज्जा और संयोग-वियोगात्मक स्थितियों का उल्लेख इस बात को प्रमाणित करता है कि वे शृंगार रस के प्रति उदासीन नहीं रहे है।"१ ____ 'विहार-वाटिका' में द्विवेदीजी ने जयदेव-विरचित ख्यात शृगार-काव्य 'गीतगोविन्द' के कतिपय छन्दों का भावानुवाद किया है और इस अनुवाद में भी शृगारिक प्रसंगों के अनुकूल सौन्दर्य-वर्णन से वे बाज नही आये हैं । जैसे, नायिका राधा का यह रूप द्रष्टव्य है: सुषमा सदन सुचि रूप सुन्दर धन्य लखि मन मानही । अनमोल गोल अडोल गौर उरज युगुल समान ही ॥२ 'कुमारनन्नवनार' में कालिदास द्वारा वणित पार्वती की सुन्दरता को अनूदित करने में भी द्विवेदीजी ने इसी प्रतिभा का परिचय दिया है। स्त्री-सौन्दर्य के वर्णन का ही उदाहरण उनके द्वारा भर्तृहरि-कृत 'शृगारशतक' के अनुवाद 'स्नेहमाला' में भी अनेक स्थलों पर प्रस्तुत हुआ है। यथा : चन्द्रानन सरसिज नयन स्वर्णमयी सब देह । कच कुंचित लखि होत हैं बलि बलि अलिगण खेह ॥ चक्रवाक कुच केहरि कटि नितम्ब विस्थूल । वचन सरस मृदु अपर सब तिय स्वभाव के मूल ॥3 १. डॉ० सुरेशचन्द्र गुप्त : 'आधुनिक हिन्दी-कवियों के काव्य-सिद्धान्त', पृ० १२३॥ २. निर्मल तालवार : (सं०) 'आचार्य द्विवेदी', पृ० ६६ पर उद्धृत। ३. उपरिवत् ।

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