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२२६ ] आचार्य महावीरसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परन्तु, जितनी स्वच्छन्दता एवं मुक्त हृदय के साथ द्विवेदीजी ने अनूदित काव्यकृतियों में शृगार तथा नारी-सौन्दर्य का अंकन किया है, उतनी रुचि तथा सहृदयता के साथ वे अपनी मौलिक कविताओं में नारी के रूप-वर्णन की दिशा में प्रवृत नही हुए। इस दिशा मे उनकी शृगार-विषयक काव्यगत मान्यताएँ बाधक थीं । यही कारण है कि नारी के रूप-सौन्दर्य के चित्रण में उनकी लेखनी सहमी-सहमी है । डॉ० रामसकलराय शर्मा ने उनके ऐसे सौन्दर्य-वर्णनों के सन्दर्भ में लिखा है :
"कवि की स्थिति यहाँ ठीक वैसी ही अँचती है, जैसे कोई गंगास्नान के लिए एक लम्बी यात्रा करके आये, परन्तु घाट पर पहुंचकर चुल्ल भर पानी मस्तक पर चढा ले और सीढ़ियों पर बैठकर स्नान की क्रिया पूरी कर ले और धारा में तैरने का साहस न करे ।"१
नारी के सौन्दर्य-अंकन की दिशा में द्विवेदीजी की प्रतिभा का सर्वाधिक स्फुरण 'सरस्वती' में प्रकाशित राजा रविवर्मा के पौराणिक खयात आख्यानों पर आधृत तैलचित्रों के काव्यात्मक परिचय देने के सन्दर्भ में हुआ। राजा रविवर्मा के चित्र सन् १९०० ई० से ही 'सरस्वती' में प्रकाशित होने लगे थे। परन्तु, सरस्वती-सम्पादन का भार ग्रहण करते ही द्विवेदीजी ने उनके चित्रो की व्याख्या करनेवाली परिचयात्मक कविताओं को चित्रों के साथ-साथ प्रकाशित करने की परम्परा का सूत्रपात किया । चित्रकला के साथ काव्यकला के पारस्परिक संयोग को स्थापित करने के लिए द्विवेदीजी ने न केवल दूसरों से इस कोटि की कविताएँ लिखवाई और हिन्दी के प्राचीन कवियों के दोहे चित्रों के साथ प्रकाशित किये, अपितु स्वयं भी खड़ी बोली में कई परिचयात्मक कविताओं की रचना की। रम्भा, कुमुदसुन्दरी, महाश्वेता, ऊषास्वप्न, गौरी, गंगा, भीष्म, प्रियंवदा, इन्दिरा आदि चित्रों पर इन्हीं शीर्षकों की उनकी कविताएं हैं। इन कविताओं में अधिकांश का सम्बन्ध नारी-सौन्दर्य से है। 'रम्भा' का रूप इस प्रकार है :
वेश विचित्र बनाया इसने, मुख-मयंक दिखलाया इसने । भृकुटी धनुषाकार मनोहर, .
अरुण दुकूल बहुत ही सुन्दर ॥२ इसी प्रकार, 'कुमुदसुन्दरी' की शोभा दर्शनीय है :
इसके अधर देख जब पाते, शुष्क गुलाब फूल हो जाते । कोमल इसकी देहलता है,
मूर्त्तिमती यह सुन्दरता है ! १. डॉ० रामसकलराय शर्मा : 'द्विवेदी-युग का हिन्दी-काव्य', पृ० ९३ । २. निर्मलतालवार : (सं०) 'आचार्य द्विवेदी', पृ० ७८ पर उद्ध त । ३. श्रीदेवीदत्त
देवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३७७ ।