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२१६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
" नागरी तेरी यह दशा" इस क्रम की पहली कविता थी । इस कविता में एक ओर नागरी की तत्कालीन दशा पर क्षोभ है :
श्रीयुक्त नागरी ! निहारि दशा तिहारी, होवे विषाद मन माहि अतीव भारी । हा हन्त लोग कत मातु तुम्हें बिसारी, सेवे अजान उर्दू उर माहिं धारी ॥ २ दूसरी ओर नागरी की विशिष्टता पर गर्व भी है :
तेरे समान रुचिरा, सरला, रसाला, शोभायुता, सुमधुरा, सगुणा, विशाला । भाषा न अन्य यहि काल लहो दिखाई, बोलें निशंक हम यों स्वभुजा उठाई || 3
इसी तरह नागरी के विकास की प्रार्थना 'नागरी का विनयपत्र' ४ कविता में भी की गई है। इन दोनों कविताओं तथा नागरी-विषयक अन्य दो कविताओं का संकलन 'नागरी' नामक काव्य-संग्रह मे हुआ है । भाषा की ही भाँति साहित्य के उत्थान के लिए भी द्विवेदीजी सचेष्ट थे । हिन्दी की पत्रिकाओं, सम्पादकों, लेखकों, कवियों आदि में व्याप्त स्वच्छन्दता पर कटाक्ष करने तथा उन्हें सही मार्ग का निर्देश करने के लिए भी उन्होंने कई कविताएँ लिखीं। संस्कृत में लिखित 'समाचारपत्र-सम्पादकस्तवः ' कविता में उनकी यही सुधारक प्रवृत्ति दीखती है । इसी तरह उनकी ' हे कविते'", " ग्रन्थकार - लक्षण', ६ 'सरस्वती का विनय' ७ ' ग्रन्थकारों से विनय', 'कवि और स्वतन्त्रता' जैसी अन्य कविताओं में भी भाषा एवं साहित्यगत विविध समस्याओं — सिद्धान्तों का निरूपण हुआ है । हिन्दी भाषा और साहित्य को उन्नत करना द्विवेदीजी की साहित्य साधना का प्रमुख उद्देश्य था । अतएव, हिन्दी की हितकामना उनकी इन कविताओं में सर्वत्र दीखती है । 'विधि-बिडम्बना' शीर्षक
१. 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका', जून, १८९८ ई० ।
२. ' आचार्य : द्विवेदी' सं० निर्मल तालवार, पृ० ७१ पर उद्धत ।
३. उपरिवत् ।
४. 'भारतजीवन', १५ मई १८९९ ई० ।
५. 'सरस्वती', जून, १९०१ ई० ।
६. उपरिवत्, अगस्त, १९०१ ई० ।
७. उपरिवत्, जनवरी, १९०३ ई० । ८. उपरिवत्, फरवरी, १९०५ ई० । ९. उपरिवत्, जुलाई, १९०६ ई० ।