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२२० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
में भारतमाता को सजल, सफल बताया गया है और इस मूर्ति की ही भावना को अपना इष्ट माना गया है :
पानी की कुछ कमी नहीं है, हरियाली लहराती है । फल और फूल बहुत होते हैं, रम्य रात छवि छाती है । मलयानिल मृदु-मृदु बहती है, शीतलता अधिकाती है, सुखदायिनी वरदायिनी तेरी मूर्ति मुझे अति भाती है । " भारत-वन्दना के क्रम में द्विवेदीयुगीन कवियों ने जन्मभूमि के सौख्य और रूपांकन के साथ-ही-साथ सम्पूर्ण जनजीवन को जयनाद से आह्लादित कर दिया है । द्विवेदीजी की एक कविता 'जन्मभूमि' में भी इसी भावना को अभिव्यक्ति मिली है । जन्मभूमि की कल्पना एक गृह के रूप में की गई है तथा प्रत्येक भारतवासी को उसमें निवास करनेवाले एक परिवार का अंग बताया गया है । यथा :
प्यारी ।
यह जो भारतभूमि हमारी, जन्मभूमि हम सबकी एक गेह सम विस्तृत प्रजा कुटुम्ब तुल्य है
भारी,
सारी ॥ २
जन-बन्धुत्व का मन्त्रोच्चार कर जन्मभूमिस्वतन्त्रता का समर्थन भी उन्होंने 'सेवा- वृत्ति
इस प्रकार, उन्होंने जन-एकता एवं " चन्दना का नया आयाम प्रस्तुत किया ।
की विगर्हणा' शीर्षक कविता में जोरदार शब्दों में किया है :
स्वतन्त्रता-तुल्य अति ही अमूल्य रत्न, देखा न और बहु बार किया प्रयत्न । स्वातन्त्र्य में नरक बीच विशेषता है,
न स्वर्ग भी सुखद जो परतन्त्रता है || 3
स्वदेशी-आन्दोलन के अन्तर्गत विदेशी वस्तुओं के व्यापक बहिष्कार का जो दौर उन दिनों चला था, द्विवेदीजी ने भी 'स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार' लिखकर अपना योग उसमे दिया। उन्होंने लिखा :
स्वदेशी वस्त्र को स्वीकार लीजे, विनय इतना हमारा मान लीजं । शपथ करके विदेशी वस्त्र त्यागो, न जाओ पास इससे दूर भागो ॥४
१. 'सरस्वती', फरवरी-मार्च, १९०३ ई०, पृ० ५० । २. उपरिवत् पृ० ५१ ।
३. 'सरस्वती', सितम्बर, १६०२ ई०, पृ० २९१ । ४. सरस्वती, जुलाई, १९०३ ई०, पृ० २३४ ॥