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२०० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
उनके द्वारा निर्देशित सभ्य समाज की भाषा खड़ी बोली ही थी, जिसका प्रयोग उस समय तक गद्यात्मक रचनाओं में ही होता था । द्विवेदीजी ने अपने समकालीन कवियों को खड़ी बोली में काव्यरचना की ओर प्रेरित किया :
" कवियों को चाहिए कि वे क्रम-क्रम से गद्य की भाषा में भी कविता करना आरम्भ करें - बोलना एक भाषा और कविता में प्रयोग करना दूसरी भाषा प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है ।" "
'औरों को खड़ी बोली के काव्य-प्रणयन की ओर प्रेरित करने के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी ने स्वयं भी कविता-सर्जन की दिशा मे प्रयास किये । 'सरस्वती' में उनकी विविध विषय-मण्डित अनेक कविताएँ संकलित हुई हैं और उनकी कविताओं का पुस्तकाकार प्रकाशन भी हुआ है । द्विवेदीजी की कविताओं के माध्यम से उनकी नीतियों और आदर्शो का ही उपस्थापन हुआ है । द्विवेदीजी की सम्पादन- कला और निबन्ध-कला में उपयोगितावाद, नीतिवाद, आदर्शवाद और आनन्दवाद का जैसा प्रस्तुतीकरण दृष्टिगोचर होता है, उनकी कविताओ में भी इन्ही माहित्यिक मान्यताओं का अभिनिवेश दीखता है । अपनी काव्यसृष्टि के सम्बन्ध में स्वयं द्विवेदीजी ने भी लिखा था :
" कविता करना अन्य लोग चाहे जैसा समझें, हमें तो यह एक तरह दुःसाध्य ही जान पड़ता है | अज्ञता और अविवेक के कारण कुछ दिन हमने भी तुकबन्दी का अभ्यास किया था । पर कुछ समझ में आते ही हमने अपने को इस काम का अनधिकारी समझा । अतएव, उस मार्ग से जाना ही प्रायः बन्द कर दिया ।"
इन पक्तियों में द्विवेदीजी की शालीनता ही नही, उनकी कविताओं के सन्दर्भ में यह सत्य भी उद्घाटित हुआ है कि द्विवेदीजी काव्यात्मक प्रतिभा से सम्पन्न नही थे और उनकी अधिकांश कविताओ में उत्तम कवित्व के लक्षण नहीं मिलते । परन्तु इसमें सन्देह नही कि अपनी साहित्यिक यात्रा के पूर्वार्द्ध में द्विवेदीजी ने अपने कवि-रूप को
विकसित किया था । रेलवे में नौकरी करते समय २१ वर्ष की आयु से ही कविताएँ लिखने लगे थे । प्रारम्भ में उन्होने संस्कृत प्रलयों का हिन्दी में रूपान्तर किया । इस प्रकार का प्रथम प्रयास सन् १८८५ ई० में हुशंगाबाद में किया गया और यह रूपान्तर पुष्पदन्त के 'श्री महिम्नः स्तोत्र' का था । इसमें द्विवेदीजी ने यथासम्भव संस्कृतछन्दों का ही प्रयोग किया है और इसमें व्रजभाषा का उपयोग हुआ है । यह रूपान्तर लगभग ६ वर्ष बाद इण्डियन मिडलैण्ड यन्त्रालय (झाँसी) से सन् १८९१ ई० में प्रकाशित हुआ । अपनी काव्यसृष्टि के प्रारम्भिक वर्षों में द्विवेदीजी ने मौलिक अथवा अनूदित कविताओं के लिए व्रजभाषा का ही प्रयोग किया है । ' श्रीमहिम्न स्तोत्र' का
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० २० । २. उपरिवत्, पृ० ३२ ॥