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२०६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
भवन्तमेहि मनस्विहिते विवर्तमानं नरदेववर्मनि । कथं न मन्युवलयत्युदीरितः शमीतरु शुष्कमिवाग्निरुच्छिखः ॥
-किरातार्जुनीयम्, १३३२ । हे महीप मानी नर जिसका महानिध्य बतलाते हैं। उसी पन्य के आप पथिक हैं, नहीं परन्तु लजाते हैं । कोपानल क्यों नहीं आपको भस्मीभूत बनाता है, सूखे-रूखे शमीवृक्ष को जैसे ज्वाल जलाता है।' विधिसमयनियोगाददीप्तिसंहार जिम, शिथिलवसुमगाघे मग्नमापत्पयोधौ । रिपुतिमिरमुदस्योदीयमानं दिनादौ, दिनकृतभिव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ॥
-किरातार्जुनीयम्, ११४६ । दैवयोग से दुःखोदधि में तुझ डूबे को यह आसीस, शवनाश होने पर लक्ष्मी मिले पुनः ऐसे अवनीश । जैसे प्रात काल सिन्धु में मग्न हुए दिनकर को आय, तिमिर-राशि हटने पर दिन की शोभा मिलती है सुख पाय ॥२ हिमव्यपायाद्विशदाधराणामापाण्डरीभूतमुखच्छवीनाम् । स्वेदोद्गमः किम्पुरुषाङ्गनानां चक्रे पदं पत्रविशेषके तु ॥
-कुमारसम्भवम्, ३१३२ । जिनके अधर निरोग हो गए मिह पड़ना मिट जाने से, 'जिनकी मुखछवि पीत हो गई कुकुम के न लगाने से । ऐसी किन्नर-कामिनियों के तन में स्वेदबिन्दु सुन्दर, रुचिर पत्र-रचना के ऊपर शोभित हुए प्रकट होकर ॥3 स्थिताः क्षणं पक्ष्मसु ताडिताधराः पयोधरोत्सेधनिपातचूर्णिताः । वलीषु तस्याः स्खलिताः प्रपेदिरे चिरेण नाभि प्रथमोदबिन्दवः ॥
-कुमारसम्भवम्, ५१२४ ॥ प्रथम वृष्टि की बूंद उमा की बरौनियों पर कुछ ठहरे, फिर पीड़ित कर अधर, कुचो पर चूर-चूर होकर बिखरे । तदनन्दर, सुन्दर त्रिवली का क्रम-क्रम से उल्लंघन कर,
बड़ी देर में पहुँच सके वे उसकी रुचिर नाभि-भीतर ।४ १. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ. ३०० । २. उपरिवत्, पृ० २८४ । ३. उपरिवत्, पृ० ३२४।। ४. उपरिवत्, पृ० ३४२ । ।