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२०८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मैं मौन रही, तथापि हे भूपाल आज आपका कायरपन मुझे बार-बार बोलने के लिए प्रेरित करती है । परन्तु, प्रस्तुत अर्थ का बोध पाठकों को सहज ही नही हो जाता है । आचार्य द्विवेदीजी का सम्पूर्ण अनूदित काव्य उनकी प्रच्छन्न भाषाशैली का एक सुन्दर उदाहरण है । इनकी काव्यगत महत्ता के सम्बन्ध में डॉ० आशा गुप्त ने लिखा है :
"प्रस्तुत अनुवादों द्वारा द्विवेदीजी अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करना नहीं चाहते थे । उनका उद्देश्य तो कालिदास भारवि जैसे महाकवियो के भावों को खड़ी बोली में भाषान्तरित करके उसके विरोधियो को यह अवगत कराना था कि इस नवस्वीकृत पद्यभाषा में भी व्रजभाषा की तरह उच्च भावमयी कल्पना अभिव्यंजित करने की असीम एवं व्यापक शक्ति निहित है । अतएव, यह कहना अत्युक्ति न होगी कि इन अनुवादों की महत्ता एवं सार्थकता तथा उनमें प्रयुक्त विविध अभिव्यंजना उपादानों के आश्रित नही, बल्कि खड़ी बोली के स्वरूप की प्रांजलता, उसके द्वारा मूल भाव की सक्षम प्रेषणीयता तथा अर्थ की बोधगम्यता पर निर्भर है ।" १
संस्कृत की मूल काव्यकृतियो की व्रजभाषा एवं खडी बोली में रूपान्तर करने के साथ ही द्विवेदीजी ने मराठी कविताओं से उनके भावार्थ ग्रहण कर तीन-तीन कविताएँ प्रस्तुत की थीं। अप्रैल, १९०६ ई० की 'सरस्वती' मे प्रकाशित उनकी 'आर्य्यभूमि' शीर्षक कविता एक ऐसी ही रचना है। इसमें आर्यो की भूमि भारत के प्राचीन गौरव का गुणगान किया गया है, यथा :
जहाँ हुए व्यास मुनि प्रधान, रामादि राजा अति कीर्तिमान ।
जो थी जगत्पूजित धन्यभूमि, वही हमारी यह आर्यभूमि ॥२
इस प्रकार, द्विवेदीजी ने संस्कृत तथा मराठी से अनूदित अपनी काव्यकृतियों द्वारा हिन्दी साहित्य का भाण्डार भरा । इन अनुवादों की रचना द्वारा उन्होंने एक ओर हिन्दी - कविता की भाषा के रूप में खड़ी बोली के प्रतिष्ठित होने में सहारा दिया और दूसरी ओर हिन्दी के पाठको का तादात्म्य संस्कृत के महान् काव्यकारों के साथ स्थापित किया । इस प्रसंग में उन्होने अपने समसामयिक साहित्य की उस विशिष्ट प्रवृत्ति का परिचय भी दिया, जिसे विभिन्न विद्वानों ने 'अतीतोन्मुखता' कहकर पुकारा है । भक्तिकाल और रीतिकाल की साहित्यिक उपलब्धियों को लॉघकर द्विवेदीजी ने संस्कृत-काव्य के अमूल्य रत्नों को हिन्दी - जगत् में बिखेरने का कार्य किया । उनका यह कार्य भी अतीत की ओर झुकाव का ही एक रूप था । उनके इन अनुवादों द्वारा संस्कृतिक चेतना को अपने ढंग से वाणी मिली है । अतएव द्विवेदीजी के अनूदित काव्य
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१. डॉ० आशा गुप्त : 'खड़ी बोली- काव्य में अभिव्यंजना', पृ० २२५ । २. 'सरस्वती', अप्रैल, १९०६ ई०, पृ० १३४ ।