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कविता एवं इतर साहित्य [ २०९ का अपना विशिष्ट महत्त्व साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से माना जा सकता है। भाषा की अभिव्यंजना-शक्ति एवं काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से उनका मौलिक काव्य इन अनूदित काव्यकृतियों की तुलना में अपर्याप्त एवं नीरस है। सच तो यह है कि द्विवेदीजी की अनूदित काव्यकृतियां उनकी मौलिक कविताओं की अपेक्षा कहीं अधिक काव्यमयी और सरस हैं। द्विवेदीजी की मौलिक कविताएं :
विविध अनुवाद-काव्यों द्वारा हिन्दी-कविता की श्रीवृद्धि करने के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी ने विभिन्न मौलिक कविताओं की भी रचना की। उनकी काव्यसाधना का अपना विशिष्ट महत्त्व एवं उद्देश्य था । संस्कृत-काव्य की छाया लेकर उन्होंने खड़ी बोली में भाषा-पद्यरचना के उदाहरण प्रस्तुत किये तथा व्रजभाषा के प्रवाह को हिन्दी में अनूदित किया। उनकी मौलिक कविताएँ अधिकांशतः उनके साहित्य-सिद्धान्तों का उपस्थापन करने के उद्देश्य से ही लिखी गई है। उन्होंने व्रजभाषा में भक्ति और शृगार की चली आती परम्पराओं के स्थान पर नवीन युग के अनुरूप आदर्शों और मानताओं को हिन्दी-कविता में स्थापित किया। इस प्रसंग में भाषा की क्रान्ति उपस्थित करने के साथ-ही-साथ उन्होंने सामयिक विषयों की प्रस्तुति पर भी विशेष ध्यान दिया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने शृगार-भावना के. आत्यन्तिक वर्णन के स्थान पर विविध नूतन समस्याओं के प्रस्तुतीकरण को अपने काव्य-सिद्धान्तों में स्थान दिया । उनके इस ऐतिहासिक कार्य को श्रीशिवचन्द्र प्रताप ने इस प्रकार शब्द-चित्रात्मक जैसी शैली में अभिव्यक्त किया है :
"शृगार के भग्नावशेषों पर उसकी कलम वन बनकर गिरी। शब्द शोले बनकर झड़े। कल्पना की दुनिया झुलसने लगी। रस की धारा सूखने लगी । सारे आवरणों को चीरकर उसने कठोर सत्य को देखा-देखा और दिखाया। गलामों को रूप और जवानी पर रीझने का हक नहीं। उसने कहा-देश और समाज सर्वोपरि है।"१
अनुपयोगी शृगारिकता की जगह हिन्दीभाषी जनता में मनोरंजक एवं उपयोगी विषयों की जानकारी जागरित करना द्विवेदीजी का उद्देश्य था । इसीलिए, उन्होंने एक साथ गद्य में विविध विषयों पर निबन्ध लिखे एवं टिप्पणियाँ लिखी और दूसरी ओर कविता में भी कई. नवीन सामाजिक-साहित्यिक विषयों को प्रस्तुत किया। देश की परिस्थिति से स्वकीया-परकीया के केलि-वर्णनों में लीन कवियों को द्विवेदीजी ने फटकारा और राष्ट्रीय उत्थान में सहायक काव्य लिखने का आदेश दिया। इस प्रकार, उन्होंने कविता में वस्तुवृत्त के सर्वाधिक महत्त्व को स्वीकार किया। डॉ. गंगाप्रसाद विमल ने. लक्ष्य किया है : "वस्तुतः चेतना का विस्तार उनकी गद्य-रचनाओं में जितना है, कविताओं में अनुपातिक दृष्टि से कम नहीं है । यह पूरा प्रसंग युगसन्दर्भ में देखा जाय,तो युगीन वस्तु
१. श्रीशिवचन्द्र प्रताप : 'हिन्दी-साहित्य : एक रेखाचित्र', पृ० १२८ ।