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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १७७
एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थापना यह है कि स्वाभाविक कवि भी एक प्रकार के अवतार हैं ।
"संसार में ईश्वर या देवताओं का अवतार कई प्रकार का और कई कारणों से होता है । अलोकिक कार्य करनेवाले प्रतिभाशाली मनुष्य भी अवतार है । स्वाभाविक कवि भी एक प्रकार के अवतार है । इसपर कदाचित् कोई प्रश्न करे कि अकेले कवि क्यों अवतार माने गये, और लेखक इस पद पर क्यों न बिठाये गये ? तो यह कहा जा सकता है कि लेखक का समावेश कवि में है, पर कवियों में कुछ ऐसी विशेष शक्ति होती है, जिसके कारण उनका प्रभाव लोगों पर बहुत पड़ता है । अब मुख्य प्रश्न यह है कि कवि का अवतार होता ही क्यों है ? पहुँचे हुए पण्डितों का कथन है कि कवि भी 'धर्मसंस्थापनार्थाय ' उत्पन्न होते है । उनका काम केवल तुक मिलाना या 'पावसपचासा' लिखना ही नहीं । तुलसीदास ने कवि होकर वैष्णव धर्म की स्थापना की है, मत-मतान्तरों का भेद मिटाया है और 'ज्ञान के पन्थ को कृपाण की धारा' बताया है । प्रायः उसी प्रकार का काम, दूसरे रूप में, सूरदास, कबीर और लल्लूलाल ने किया है। हरिश्चन्द्र ने शूरता, स्वदेशभक्ति और सत्यप्रेम का धर्म चलाया है ।" निश्चय ही, इस स्थापना में और सिडनी प्रभृति आलोचकों के इस कथन में कि कवि पैगम्बर होता है, पर्याप्त साम्य है । द्विवेदीजी कवियों में 'कुछ ऐसी विशेष शक्ति' देखते हैं, जिसके कारण उनके मतानुसार, उनका प्रभाव व्यापक एवं गम्भीर होता है ।
आलोचकों का एक प्रमुख वर्ग साहित्यकार के नैतिक दायित्व पर समधिक बल देता है और कहता है कि साहित्य का लक्ष्य आनन्द अथवा रस न होकर नीति या उपदेश है | साहित्य की सार्थकता साहित्य के लिए, प्रत्युत जीवन के लिए है । द्विवेदीजी फलवादी सत्समालोचक न होकर जीवनवादी और नीतिवादी है । उसके अनुसार, महान् कवि का अवतरण एक निश्चित उद्देश्य से होता है । द्विवेदीजी के 'अवतार' शब्द से धार्मिक अवतारों का स्मरण हो आता है । वस्तुतः, स्वयं द्विवेदीजी ने जान-बूझकर इस शब्द का प्रयोग किया है । और, धार्मिक अवतारों की याद दिलाई है। गीता के निम्नांकित श्लोक में कहा गया है कि सन्मार्ग में स्थित साधुओं के परित्राण के निमित्त, पाप कर्म में लीन रहनेवाले दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए युग-युग में भगवान् का अवतार होता है :
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे युगे ॥ २
१. रसज्ञरंजन (उपरिवत्), पृ० २६-२७ । २. गीता, ४।८ ।