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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १८५
"किया, उनके निबन्धों का परिष्कार किया, उनकी भाषाशैली सुधारी और स्वयं भी 'विचारोत्तेजक आलोचनात्मक निबन्ध रचे । उनके निबन्धों के आधुनिक अध्येता को उनमें उस कसावट की अनुभूति भले ही न हो, जो विश्व के वरेण्य आलोचकों की 'रचनाओं में मिलती है, पर वे अत्यन्त विचारोद्बोधक अवश्य होते हैं । उच्च कोटि की . आलोचना-शैली कसी हुई होनी चाहिए । उसमें भावों या विचारों की पुनरुक्तियाँ न हों -और प्रत्येक महत्त्वपूर्ण स्थापना के लिए पर्याप्त उदाहरण प्रस्तुत किये जायँ । द्विवेदीजी परिपक्व गद्यशैली के इन गुणों से सर्वथा परिचित थे । फिर भी, किसी बात 'पर बल देने के निमित्त वे उसे दुहराना, उसकी पुनरावृत्ति करना स्वाभाविक समझते हैं।
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'साहित्यालाप' के अट्ठारह निबन्धों में कुछ ही ऐसे निबन्ध हैं, जिनका आलोचनात्मक महत्त्व है । इस संग्रह का अन्तिम निबन्ध, जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, छायावादी कवि और कविता के प्रति द्विवेदीजी के दृष्टिकोण को प्रोद्भासित करता है । इसमें सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी छायावादी निकाय के कवियों के प्रति अनुदार हैं और नव्य - अभिनन्दन के लिए अप्रस्तुत भी । इस कारण १. उनके इस निबन्ध का महत्त्व ऐतिहासिक मात्र हैं । फिर भी, इसकी स्थापनाएँ विवादास्पद होकर भी उपेक्ष्य नहीं हैं, -इसमें न केवल द्विवेदीजी के दृष्टिकोण का आभास मिलता है, वरन् साथ ही उस जुगविशेष की अभिवृत्ति का भी आभास होता है, जिसमें छायावाद का अभ्युदय हुआ था। २. महावीरप्रसाद द्विवेदीजी की इस आलोचना में नव्यता के प्रति जो सन्देह प्रतिबिम्बित हुआ है, वह कुछ अंशों में स्वाभाविक प्रतीत होता है । विश्व साहित्य में ऐसी आलोचना के अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े है । जब इंगलैण्ड में उस रोमाण्टिक काव्यधारा का अवतरण हुआ, जिससे हिन्दी की छायावादी कविता अनुप्राणित है, जब वर्ड्स्वर्थ और कोलरिज के रोमाण्टिक प्रगीत प्रकाशित हुए, तब उनके समसामयिकों ने कुछ ऐसी बातें कही थी, जैसी द्विवेदीजी ने छायावादी कवियों के सम्बन्ध में कही है । नई कविता अपनी नवीनता के कारण ही दुरूह और अस्पष्ट होती है । पुरानी कविता के अध्ययन से निर्मित हमारी अभिरुचि नई रचनाओं के अभिनन्दन के लिए तैयार नही रहती । भाव और शिल्प की नव्यता, नव्यातिनव्य बिम्बों की शृंखला, वस्तु-जगत् को देखने की अभिनव शैली सन्देह की दृष्टि से देखी जाती है । परन्तु, स्मरणीय है कि प्रत्येक युग की अपनी विशिष्ट अभिव्यंजना-शैली और अपना विशिष्ट जीवन-दर्शन होता है। प्रत्येक युग की कलाकृतियाँ युगसत्य से प्रभावित होने के कारण प्राग्भूत कलाकृतियों से भिन्न हुआ करती है । यह युगसत्य एवं कलाकार की परिवर्तित चेतना का प्रभाव ही है, जो सभी कलाकृतियों को किसी-न-किसी प्रकार का वैशिष्ट्य प्रदान करती । नई कविता की भी वैसी ही आलोचना हुई है, जैसी छायावादी कवियों की हुई थी ।