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१८६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कभी-कभी विश्व के निर्वैयक्तिक एवं वस्तुनिष्ठ आलोचक भी वैयक्तिक अभिरुचि. की अवहेलना नहीं कर पाते । नव्यशास्त्रवादी जॉनसन ने 'मेटाफिजिकल' कवियो की आलोचना इस कारण भी की थी कि इन कवियों की रचनाएँ नव्यशास्त्रवाद के सिद्धान्तो पर आधृत न होकर मौलिक होने का दावा करती थीं । नव्यशास्त्रवाद प्रतिभा और मौलिक सर्जना मे विश्वास नही करता, वह अभिजात नियमों के पालन
और अनुकृति में विश्वास करता है। सत्रहवी शताब्दी मे 'मेटाफिजिकल' कवियो ने नये-नये बिम्बों की सर्जना और सम्प्रेषण की जटिलतर पद्धतियों की उद्भावना की थी। उनकी मौलिक भावाभिव्यक्ति जॉनसन के लिए अरुचिकर थी।
द्विवेदीजी का 'आजकल के छायावादी कवि और कविता' शीर्षक निबन्ध समीक्षक के प्रायः समस्त गुणों और उसके कतिपय दोषों का सफल प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ द्विवेदीजी का उत्कट भाषाप्रेम स्तुत्य है, वही उनकी अनुदारता कदाचित गर्हणीय भी है। जहाँ उनकी भाषाशैली की प्रभावोत्पादकता प्रशंसनीय है, वहीं उनका प्रभावाभिव्यंजन सर्वथा आपत्तिजनक भी । जहाँ उनका व्यंग्य स्पृहणीय है, वहाँ उनकी पुनरुक्तियाँ खटकती है । "कौन ऐसा सरसहृदय श्रोता होगा, जो यह कविता सुनकर लोट-पोट न हो जाय ? भगवद्भक्त तो इसे सुनकर अवश्य ही मुग्ध हो जायेगे । अन्य रमिकों पर भी इसका असर पड़े बिना ही न रहेगा। कितनी ललित, प्रसादपूर्ण और कर्णमधुर रचना है। इसमें जो भाव निहित है, वह सुनने के साथ-साथ ही समझ में आ जाता है । यह इसकी बड़ी खूबी है।"१ __एक स्थल पर द्विवेदीजी ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया है कि छायावादी कवि अपनी कविता का मतलब दूसरों को समझा नहीं पाते। जब अपने आदर्श गणतन्त्र के कवियों को निष्कासित करने की समस्या पर प्लेटो ने विचार किया, तब उसने अन्यान्य तर्को के साथ एक यह भी तर्क उपस्थित किया कि कवि अपनी कविताओं के अर्थ समझा नही पाते; क्योंकि उनकी कविताएँ उस मनःस्थिति से उद्भूत होतो है, जिनमे कवि को स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता।
कविता प्रेरणाप्रसूत सर्जना है, इसलिए कवि उस क्षण में कविता रचता है, जब वह आत्मविभोर हुआ रहता है। द्विवेदीजी का लक्ष्य छायावादी कवियों को हिन्दी-- साहित्य से निष्कासित करना नहीं है, प्रत्युत यह दिखाना है कि उच्च कोटि का काव्यसर्जक यह जानता है कि उसके लिए कौन-सी शैली समीचीन है और उसे किन-किन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करनी है। द्विवेदीजी की समीक्षा, तत्त्वतः प्रभावाभिव्यंजक (इम्प्रेसनिस्टिक) न होकर विश्लेषणात्मक और तथ्यपरक ही अधिक होती है । परन्तु, छायावादी कवियों पर लिखते समय वे स्वभावतः आत्मनिष्ठ हो जाते हैं और विश्लेषण
१. महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'साहित्यालाप', पृ० ३४८ ।