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१७८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अवतारों के मूल में 'धर्मसंस्थापनार्थाय' की भावना क्रियाशील होती है, और चकि कवि भी अवतार होता है, इसलिए उसका उद्देश्य भी साधुओं का परित्राण और दुष्टों का विनाश होना रहता है । यदि उसके काव्य से धर्म की संस्थापना न हो सकती, तो वह द्विवेदीजी के कथनानुसार निश्चय ही तुक मिलानेवाला और 'पावसपचासा' लिखनेवाला कवि है।
जिन कवि-अवतारो की 'धर्मसंस्थापनार्थाय' रची गई कविताओं के आधार पर द्विवेदीजी ने कवि को अवतार घोषित किया है, उनमें तुलसीदास का नाम अग्रणी है। द्विवेदीजी ने सगर्व उद्घोषणा की है कि "तुलसीदास ने कवि होकर वैष्णव-धर्म की स्थापना की है, मत-मतान्तरों का भेद मिटाया है और 'ज्ञान के पन्थ को कृपाण की धार' बताया है। प्रायः उसी प्रकार का काम, दूसरे रूप में, सूरदाम, कबीर और लल्लूलाल ने किया है। हरिश्चन्द्र ने शूरता, स्वदेशभक्ति और सत्यप्रेम का धर्म चलाया है।"१ तात्पर्य यह कि कवि किसी-न-किसी रूप में १. उपदेशक होता है, २. देश, काल, अवस्था और पात्र के अनुसार कविता करता है और ३. इस बात का खयाल रखता है कि उसकी रचना से पाठकों का मनोरंजन हो । अपने इन्हीं गुणों के कारण कवि संसार का कल्याण करते हैं -स्वयं अमर हो जाते हैं । विश्व के जिन कवियों ने अविनश्वर यज्ञ की उपलब्धि की है, वे तत्त्वतः उपदेशक रहे हैं।
यह सत्य है कि सभी उपदेशों और नीतिमूलक कथनों को काव्य की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता। कवियों के दिये गये उपदेश जो 'कवि-कर्त्तव्य' शीर्षक निबन्ध में मिलते हैं, कविता नहीं है। आचार्यों और गुरुओं से प्राप्त नीरस, इतिवृत्तामक उपदेश हमारा मनोरंजन नहीं करते । उनमें न संगीत की स्वरमाधुरी होती है और न ललित पद-योजना ही, न अलंकारों की सहज कमनीयता होती है और न छन्दःशास्त्र के नियमों का पालन ही। वस्तुतः, कोरे उपदेश नीरस और उबानेवाले होते हैं। द्विवेदीजी कवियों को अवतार और उपदेशक तो कहते हैं, पर साथ ही उसके लिए कतिपय शत्तों का भी उल्लेख करने में संकोच नही करते । हम उसी कवि को अवतार कह सकते हैं, जो उपदेश तो दे ही, साथ ही निम्नलिखित शर्तों का भी पालन करे।
१. कविता का विषय मनोरंजन हो। २. कवि देश, काल, अवस्था और पान के अनुसार कविता करे। ३. कवि के सामने एक ऊँचा उद्देश्य अवश्य रहे। ४. अपनी कल्पना-शक्ति के द्वारा कवि अपनी जटिल अनुभूतियों को भी ऐसे
अनोखे ढंग से प्रस्तुत करे कि वे सहज ही बोधगम्य हो जाय ।
१. रसज्ञरंजन, पृ० २७ ।