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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १५१
साधारण स्तर से ऊपर की वस्तु स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था । निबन्ध की कलात्मकता एवं साहित्यिकता पाठक तथा निबन्धकार के सहयोग पर ही अवलम्बित है।""
समसामयिक परिवेश के बन्धन के कारण एव अपने समक्ष खड़े युगान्तरकारी उद्देश्यों की पूत्ति में संलग्न होने के कारण आचार्य द्विवेदीजी ने निबन्ध - कला को मात्र विचारो एवं जानकारियों का सरल संवाहक बनाये रखा । उनके यही निबन्ध तत्कालीन साहित्यकारों के लिए रचनाकार्य के आदर्श थे और द्विवेदीजी उनके प्रेरणास्रोत थे । आलोचना :
गद्य की अन्यान्य विधाओं की तरह आलोचना का प्रारम्भ भी भारतेन्दु-युग में ही हुआ । अपने प्रारम्भिक चरण में हिन्दी आलोचना एकमेव पत्रकारिता के साथ ही संयुक्त रही। इस अवधि में समालोचना केवल ' पुस्तक परिचय' अथवा 'पुस्तक समीक्षा' के रूप मे विकसित होती रही । भारतेन्दु ने अपने 'नाटक' शीर्षक निबन्ध में तथा यत्र-तत्र अपने काव्य-सिद्धान्तो के प्रतिपादन में समीक्षा का बीज वपन किया। उनके युग के अन्य समालोचको मे पं० बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी प्रमघन, गंगाप्रसाद aftar इत्यादि के नाम उल्लेखनीय है । पुस्तक समीक्षा पर ही आधृत समालोचनाशैली का विकास इस युग में अधिक हुआ । सन् १८७७ ई० में लाला श्रीनिवासदास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर' की समीक्षाएँ तत्कालीन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और उनके द्वारा ही गुणदोष-दर्शन पर आधृत ममालो वना का प्रारम्भ हुआ । भारतेन्दुयुग की पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक - परीक्षा के स्वरूप का एक उदाहरण प्रस्तुत है । श्रीदेवीप्रसाद उपाध्याय कृत 'सुन्दर सरोजिनी' की समीक्षा हिन्दी बंगवासी (१९ जून, १९९३ ई०) में इस प्रकार निकली थी :
'सुन्दर सरोजिनी' अपनी चाल-ढाल की हिन्दी में पहली पुस्तक है, जानने के योग्य एवं भूगोल एव इतिहास की बाते योग्यता के साथ रखी गई है, स्थान २ की Safaarएँ भी बहुत ललित हैं। इसके प्रत्येक पृष्ठ से लेखक की विद्या - बुद्धि और जानकारी का परिचय मिलता है । समूची पुस्तक ऐमी सुन्दर भाषा में लिखी गई है कि वाह रे वाह । समालोचना की इसी प्रशंसात्मक विधि को तत्कालीन अधिकांश आलोचकों ने अपनाया था । बालकृष्ण भट्ट ने प्रशंसा के साथ-साथ दोष-दर्शन की नीति भी अपनाई थी। बाद में, सन् १८९७ ई० में 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के प्रकाशनारम्भ से हिन्दी-समालोचना-साहित्य में विशेष अभिवृद्धि हुई । ज्यो-ज्यों भारतीय आर
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१. डॉ० उदयभानु सिंह: 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग', पृ० १५८ २. डॉ० गोपाल राय : 'हिन्दी - कथासाहित्य और उसके विकास पर पाठकों का रुचि का प्रभाव', पृ० ३४० पर उद्धत ।