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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १५३ होती है । द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' के सम्पादक-पद पर रहते हुए अपनी आलोचनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया। इस कारण उनकी समीक्षाओं मे सम्पादकीय गाम्भीर्य तथा साहित्यनिर्माता-बुद्धि का अद्भुत योग दिखाई पड़ता है। वे अँगरेजी, संस्कृत एवं मराठी के अपने सम्पूर्ण ज्ञान का उपयुक्त आश्रय लेकर अपनी सम्पादन-कला एवं समीक्षा को अपेक्षित निखार एव प्रौढता दे पाये हैं । डॉ० राजकिशोर कक्कड़ ने लिखा है :
___ "हिन्दी के आलोचकों में द्विवेदीजी का विशेष महत्त्व है । वे हिन्दी के विशाल आलोचना-भवन की सुदृढ नीव के सस्थापक हैं । परम्परागत साहित्यिक धारणाओं तथा आदर्शों की उपेक्षा करके उन्होंने ही पहले-पहल चिन्तन तथा मनन के आधार पर निजी विचारों का प्रतिपादन करके परम्परागत आलोचना की शैली तथा विषय-तत्त्व में परिवर्तन उपस्थित किया। यद्यपि उनकी आलोचना आज के मानदण्डों के विचार से आधुनिक नही कही जायगी, किन्तु हिन्दी के लिए वह पहली आधुनिक आलोचना थी।"
इसमें सन्देह नहीं कि द्विवेदीजी की समीक्षाओं का मूल प्रेरक स्रोत उनका सम्पादकीय जीवन था । 'सरस्वती' के सजग, सप्राण एवं निर्भीक सम्पादक होने के कारण द्विवेदीजी विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों की समीक्षा करने तथा उनपर टिप्पणी करने के अभ्यस्त थे। आलोचना के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी इन्ही प्रवृत्तियों का परिचय दिया। आलोचना करते समय वे शत्रु या मित्र का भेदभाव भूल जाते थे। तत्कालीन परिस्थितियों में, साहित्यिक समालोचना में तीव्रता और सत्यता का ईमानदारी से पालन करना सरल नहीं था। फिर भी, द्विवेदीजी ने आलोचक-धर्म को न्यायाधीश के कर्म के समान निष्पक्षता-सापेक्ष मानकर निर्भयता एवं सत्यता दिखलाई। वे मानते थे कि :
"समालोचक की उपमा न्यायाधीश से दी जा सकती है। जैसे, न्यायाधीश राग-द्वेष और पूर्व-सस्कारों से दूर रहकर न्याय का काम करता है, समालोचक भी वैसा ही करता है।... बड़े-बड़े कवि विज्ञानवेत्ता, इतिहास-लेखक और वक्ताओं की कृतियों पर फैसला सुनाने का उसे अधिकार है ।"२
द्विवेदीजी की आलोचना भी अधिकांशतः न्यायाधीश के फैसले के अनुसार निर्णयात्मक होती थी। यही शैली उनके युग की सम्पूर्ण आलोचना में व्याप्त है। डॉ० रामदरश मिश्र ने इस काल की पूरी समीक्षा निर्णयात्मक ढंग से की है : “सभी आलोचक (चाहे किसी प्रवृत्ति के रहे हों) अपनी-अपनी कसौटी पर कृतियों के गुणदोषों को कसकर उनकी १. डॉ० राजकिशोर कक्कड़ : 'आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आलोचना का विकास',
पृ० ५८१ । २. 'सरस्वती', अप्रैल, १९११ ई०, पृ० १४३।