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१६४ ] आचार्य महाबीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
"वे आलोचनार्थं आये ग्रन्थों की समालोचना तो करते ही थे, यदि कोई गलत और अमर्यादित ग्रन्थ कहीं से प्रकाशित हुआ हो, तो उसे मँगाकर उसकी बखिया - उधेड़ आलोचना करते थे । १
निर्णायक भाव से द्विवेदीजी ने अपने युग की समस्त उपलब्धियों की समीक्षा की और हिन्दी-संसार समक्ष आदर्श, नीतिमूलक एवं सत्साहित्य की स्थापना का मानदण्ड निर्धारित किया । विषय, भाषा और शैली की दृष्टि से हिन्दी की तत्कालीन पुस्तकों का संस्कार उन्होंने किया । तार्किक, व्यंग्यपूर्ण और ओजपूर्ण शैलियों में उन्होंने पुस्तक-परीक्षण का यह युगान्तरकारी कार्य किया । द्विवेदीजी की पुस्तकालोचनकला का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा । मार्च, १९१५ ई० की 'सरस्वती' में उन्होंने 'वैदिक प्राणैषणा' नामक पुस्तक की अधोलिखित समीक्षा प्रकाशित की थी:
"वैदिक प्राणषणा : आकार बड़ा, पृष्ठ-संख्या ५२०, मूल्य २ रुपया, लेखक, श्रीमद्वैद्याचार्य पण्डित हेमनिधि शर्मा उपाध्याय, बुलन्दशहर; प्रकाशक, लेखक महाशय के पुत्र पण्डितसुधानिधि शर्मा उपाध्याय, प्रकाशकजी से प्राप्त । इस पुस्त का नाम जैसा क्लिष्ट है, भाषा भी इसकी वैसी ही क्लिष्ट है, वह कहीं-कहीं व्याकरणविरुद्ध भी है । इनमें न मालूम क्या-क्या लिखा गया है । इसका प्रधान उद्देश्य निरामिष भोजन की महत्ता दिखाना है । परन्तु, जिन बातों का मूल विषय से बहुत ही कम या बिलकुल ही सम्बन्ध नहीं, वे भी इसमें सन्निविष्ट कर दी गई हैं। उदाहरणार्थ, वाजीकरण-विधि, वैदिक गर्भाधान-विधि, मद्यपान- विचार, वाममार्ग का प्रचार आदि । ... इस पुस्तक की सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि श्रुतियों में, स्मृतियों में, नाट्यसूत्रों में और वैद्यक-ग्रन्थों आदि में जहाँ-जहाँ माँस खाने या हिंसा करने का उल्लेख हैं, वहाँवहाँ के वचनों का नया ही अर्थ वैद्याचार्यजी ने कर डाला है । मतलब यह है कि यदि 'कहीं किसी को आपके मत के विरुद्ध कोई वचन मिले, तो उसे समझना चाहिए कि या तो उसका वह अर्थ ही नहीं, जो आजतक अधिकांश विद्वान् समझते आये हैं या वह वचन का प्रक्षिप्त अंश है : दुर्धर्ष कार्य के उपलक्ष्य में आपको बधाई । २
पुस्तक की तह तक जाकर उसके दुर्गुणो का पता लगाने में द्विवेदीजी किस सीमा तक कुशल थे, इसका सहज अनुमान इस समीक्षा से लगाया जा सकता है । इसी प्रकार, गुणों का बोध होते ही वे प्रशंसनीय वाक्यों की झड़ी लगा देते थे । यथा, जून, १९१५ ई० की 'सरस्वती' में प्रकाशित 'कुमारपालचरित' की समीक्षा की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
" जैन साहित्य में भारत के मध्यकालीन इतिहास की बहुत कुछ सामग्री है। जैनों को उसका सदुपयोग करना चाहिए। इससे अनेक दुर्लभ बातों का पता लग सकता है। १. डॉ० लक्ष्मीनारायण सुधांशु : 'हिन्दी - साहित्य का बृहत् इतिहास', भाग १३, पृ० १४७ ।
२. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० २०५ ।