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१७० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परन्तु, आनन्दोपलब्धि के साथ-साथ लोकोपकार को भी उन्होने काव्य का प्रमुख लक्ष्य माना है । अर्थलाभ एवं यश प्राप्ति की दृष्टि से भी लोकहित की प्रवृत्ति से रचित काव्य का विशेष महत्त्व होता है । यथा :
भाषा है रमणी-रत्न महा-सुखकारी, भूषण हैं उसके ग्रन्थ लोक उपकारी । उनको लिख उसकी तृप्ति भलीविधि कीजै,
अति विमल सुयश की राशि क्यों न ले लीजै ।। आनन्द एवं लोकहित के प्रयोजन से रचित कविताओं को द्विवेदीजी विविध विषयों से परिपूर्ण देखना चाहते थे। हिन्दी-साहित्य की सर्वागीण उन्नति के लिए उन्होंने विविध वर्ण्य विषयों के उपयोग की सलाह दी थी :
"जो जिस विषय का ज्ञाता है अथवा जो विषय जिसे अधिक मनोरंजक जान पड़ता है, उसे उसी विषय की ग्रन्थ-रचना करनी चाहिए। साहित्य की जितनी शाखाएँ हैं-ज्ञानार्जन के जितने साधन है-सभी को अपनी भाषा में सुलभ कर देने की चेष्टा करनी चाहिए।"२ ___ इस कारण उन्होंने अपने युग के कविगों को नये-नये विषयों पर काव्य-रचना की प्रेरणा दी थी। 'कवियों की उर्मिला-विषयक उदासीनता' उनका एक ऐसा ही प्रेरक निबन्ध है। विषय की विविधता और उज्ज्वल भावों की भाँति कविता की कलात्मक परिष्कृति की भी द्विवेदीजी ने चर्चा की है और इस सन्दर्भ मे भाषा के प्रसाद गुण और उसकी परिष्कृति की ओर भी द्विवेदीजी ने विशेष ध्यान दिया है। भाषा के सरल, व्याकरणसम्मत एवं विषयानुकुल होने के सम्बन्ध में उनकी सूक्तियाँ द्रष्टव्य है :
"लेखकों को सरल और सुबोध भाषा में अपना वक्तव्य लिखना चाहिए।" 3 "कविता लिखने मे व्याकरण के नियमों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।"
"विषय के अनुकूल शब्द-स्थापना करनी चाहिए।"५ काव्य-शिल्प के सम्बन्ध में भाषा के समान अन्य अलंकार आदि तत्त्वों का विवेचन द्विवेदीजी ने विस्तार से नहीं किया है। हाँ, छन्द-प्रयोग की सामान्य रूपरेखा निर्धारित करते हुए उन्होंने अतुकान्त काव्य का विवेचन किया है। वे छन्दों को कविता का बाह्य उपकरण मानकर उसमें भाव-सौन्दर्य की उपस्थापना को अधिक महत्त्व देते थे। इस प्रकार, आचार्य द्विवेदीजी
१. श्रीदेवीदत्त शुक्ल : (सं०) "द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३७३ । २. 'सम्मेलन-पत्रिका', चैत्र-वैशाख, मं० १९२०, पृ० ३१६ । ३. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० २० । ४. उपरिवत्, पृ० १८। ५. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० १८ ।