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१६८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
"रस ही कविता का प्राण है, और जो यथार्थ कवि है, उसकी कविता में रस अवश्य होता है।"१ __"कविता पढ़ते समय तद्गत रस में यदि पढ़नेवाला डूब न जाय, तो वह कविता, कविता नहीं।"२
इन उक्तियों से स्पष्ट है कि उन्होंसे रस को काव्य का जीवन मानकर यह स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि रसविहीन रचना में काव्यत्व नहीं होता। उनका रस-सम्बन्धी यह विवेचन कविता के सन्दर्भ में ही हुआ है, पृथक् रूप से रस का विवेचन उन्होंने नहीं किया है। इसी प्रकार, उन्होंने अलंकारों का भी प्रसंगवश उल्लेख किया है। रसवादी होने के नाते वे काव्य में सरलता, स्पष्टता एवं मनोरंजकता के पक्षधर थे, इसी कारण अलंकारों के अनावश्यक चमत्कार-बोधक प्रयोग को उन्होंने मान्यता नहीं दी है । वे काव्य के अस्वाभाविक अलकरण के स्थान पर उस में आन्तरिक गौरव के प्रतिष्ठापन पर बल देते थे। उन्होंने एक जगह लिखा भी है : ___ "अर्थ के सौरस्य ही की ओर कवियों का ध्यान अधिक होना चाहिए, शब्दों के आडम्बर की ओर नहीं। साथ ही, वे अलंकारों के नवीन युगानुकूल विन्यास के भी पक्षपाती थे। 'भारतीभूषण' नामक एक तत्कालीन पुस्तक की प्रस्तावना में द्विवेदीजी का एक पत्र उद्धृत है, उसी में द्विवेदीजी की यह भावना सामने आई है : ___ "भारती को कुछ नवीन भूषणों से अलंकृत करने से हमें संकोच नहीं करना चाहिए।... फिर, क्या कारण है कि बेचारी भारती के जेवर वही भरत, कालिदास भोज इत्यादि के समय के ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं। भारती को क्या नवीनता पसन्द नहीं ?'४
अलंकारों की तरह द्विवेदीजी ने रीति का भी विवेचन किया है। उन्होने रीति को आधुनिक शैली के रूप मे स्वीकार करके उसके प्रमुख तत्त्व भाषा का ही वीवेचन किया है। उनका विचार था कि वही भाषा उत्तम शैली की सूचक हो सकती है, जो शुद्ध, व्याकरणसम्मत, मरल, सीधी तथा बोलचाल की हो। शैली या रीति के अन्य तत्त्वों की व्याख्या उन्होंने इसलिए नही कि उस समय भाषा को शुद्ध, व्यवस्थित, सरल तथा युगानुरूप भावों की व्यंजक बनाना ही आलोचकों का प्राथमिक कार्य था। इस तरह, जब द्विवेदीजी ने गुणों की चर्चा की है, तब भी उनका ध्यान शुद्धता के महत्त्व-स्थापन: की ओर सर्वाधिक दीख पड़ता हैं। उन्होंने प्राचीन परम्परित गुणों की चर्चा न करके भाषा के गुणों का मौलिक ढंग से विवेचन किया है। इस सन्दर्भ में उन्होंने
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'प्राचीन पण्डित और कवि', पृ० ३५ । २. 'सरस्वती', जनवरी, १९०० ई०, पृ० ३२ । ३. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० ४१ । ४. श्रीअर्जुनदास केडिया : 'भारतीभूषण', पृ० ४१ ।