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गद्य शैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १७२
करण ही हुआ है, परन्तु नाटक-विषयक अपने सिद्धान्तों का विवेचन उन्होने 'नाट्यशास्त्र' नामक अपनी पुस्तक में किया है। शत्रघ्नप्रसाद ने लिखा है :
"भारतेन्दु के निबन्ध 'नाटक' के बाद यह हिन्दी में नाट्यशास्त्र की पहली पुस्तिका है। भारतेन्दु अपने निबन्ध में संस्कृत-नाट्यशैली को अपनाते हुए भी नवीन परिवर्तन के पोषक थे, ये पूरे-पूरे से संस्कृत-पद्धति के समर्थक हैं ।"१
द्विवेदीजी ने इस पुस्तक मे अपनी नाटक-सम्बन्धी समस्त मान्यताओं को भरतप्रणीत 'नाट्यशास्त्र' तथा धनंजय-विरचित 'दशरूपक' पर निर्मित किया है । वे नाट्य-चिन्तन की प्राचीन भारतीय परम्परा के ही परिपालक थे। परन्तु, कहीं-कहीं उन्होंने परम्परित विचारों के स्थान पर नवीन चिन्तन को भी स्वीकार किया है। ऐसा उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के चिन्तन के आधार पर किया है । जैसे, 'द्विवेदीजी ने वियोगान्त तथा युगानुरूप नाटकों की परम्परा से हटकर स्वीकृति दी है । इस प्रकार, नाटक, उपन्यास आदि गद्य की विविध विधाओं तथा काव्य, साहित्य के उपकरणों से सम्बद्ध सिद्धान्तों को द्विवेदीजी ने यथावसर प्रस्तुत किया है और इस सन्दर्भ में युगीन परिवेश के आवश्यम्नानुसार भारतीय तथा पाश्चात्त्य मतों को ग्रहण किया है। उन्होने जहाँ एक ओर संस्कृत-साहित्य से विचार लिये हैं, वहाँ अँगरेजी से भी लेने की बात कही है :
इंगलिश का ग्रन्थ-समूह अतिभारी है, संस्कृत भी सबके लिए सौख्यकारी हैं। इन दोनों में से अर्थरत्न लोज,
हिन्दी में अर्पण इन्हें प्रेमयुक्त कीजै ॥२ इस प्रकार, द्विवेदीजी के समीक्षा-सिद्धान्तों में भारतीय और पाश्चात्त्य, प्राचीन और नवीन मतों का उपयोगी मिश्रण परिलक्षित होता है। उनकी समीक्षात्क कसौटी 'भाव, विषय और अभिव्यक्ति को दृष्टि से सामाजिक नैतिकता तथा हिन्दी-साहित्य की सर्वांगीण उन्नति के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है।
"साहित्यिक समीक्षा के क्षेत्र में युगानुरूप मार्ग-निष्कासन की दृष्टि से द्विवेदीजी का जितना महत्त्व है, हिन्दी-भाषा की समीक्षा के क्षेत्र में भी उनका महत्त्व उससे कम नहीं है । वे हिन्दी-भाषा के शीर्षस्थ समीक्षक तथा संस्कारक कहे जा सकते हैं। डॉ. शिवकरण सिंह ने लिखा है : ___ "विचारों से निर्भीक, चित्तवृत्ति से निरंकुश और भावना से राष्ट्रप्रेमी होने के कारण उनका भाषासुधार-सम्बन्धी विचार सर्वतोमावेन भाषा की उन्नति की १. डॉ० शत्रुघ्नप्रसाद : 'द्विवेदीयुगीन हिन्दी-नाटक', पी-एच् डी०. उपाधि के
लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध, पृ० ७३७ । २. डॉ० कृष्णवल्लभ जोशी : 'नव्य हिन्दी-समीक्षा', पृ० १२ पर उद्ध त ।