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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १५९
वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन समीक्षात्मक कृतियों में कही प्राचीन कवियों से सम्बद्ध विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है, कही समकालीन साहित्यकारों का विवेचन हुआ है। और कहीं समीक्षा के सैद्धान्तिक स्वरूप का उपस्थापन हुआ है । परन्तु द्विवेदीजी की समीक्षात्मक कृतियों की प्रस्तुत सूची के विशेष सन्दर्भ में डॉ० उदयभानु सिंह की अधोलिखित पक्तियाँ ध्यातव्य है :
" द्विवेदीजी का महान् आलोचक ठोस आलोचनात्मक ग्रन्थों का प्रणयन न कर सका । वह भाषा सुधार, रुचि - परिष्कार और लेखक-निर्माण तक ही सीमित रह गया । उसने जान-बूझकर इन संकुचित सीमाओं को स्वीकार किया - युग की माँगों को पूरा करने के लिए ।” १
अपने युगीन महत्त्व के आलोक में द्विवेदीजी के आलोचनात्मक साहित्य का हिन्दीआलोचना के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान है । इनके समूचे आलोचनात्मक कृतित्व को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । पहले भाग में उनकी पुस्तक अथवा कविपरीक्षा-विषयक समीक्षाएँ आनी है और दूसरे भाग में उनके समीक्षा - सिद्धान्तों की गणना की जा सकती है । अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इन दोनों का पृथक्-पृथक् विवेचन ही समीचीन होगा । वस्तु एवं विवेचन की दृष्टि से इन दोनों विभागों को क्रमशः परिचयात्मक आलोचना एवं सैद्धान्तिक समीक्षा कहा जा सकता है।
परिवयात्मक आलोचना :
द्विवेदीजी के आलोचनात्मक साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग प्राचीन और नवीन साहित्यिक कृतियों की परिचयात्मक गुणदोष - विवेचना से व्याप्त है । परिचयात्मक आलोचना के अन्तर्गत उन्हीं की गणना की जा सकती है । 'सरस्वती' के 'पुस्तकपरिचय' स्तम्भ से कतिपय पुस्तकों तक में इस कोटि की आलोचना का विस्तार परिलक्षित होता है । द्विवेदीजी ने साहित्यिक रचनाओं के गुणदोष-परीक्षण के लिए टीका, शास्त्रार्थ, खण्डन, सूक्ति, लोचन इत्यादि कई आलोचना-पद्धतियाँ अपनाई । उन्होने अपनी परिचयात्मक आलोचना का प्रारम्भ अनूदित ग्रन्थों की समीक्षा से किया । द्विवेदीजी द्वारा लिखित 'कुमारसम्भवभाषा' की समालोचना सन् १८९६ ई० के आरम्भ मे 'काशी - पत्रिका' में छपी थी। यही द्विवेदीजी की पहली आलोचनात्मक उपलब्ध रचना कही जा सकती है। लाला सीताराम द्वारा महाकवि कालिदास कृत 'कुमारसम्भवम्' के हिन्दी अनुवाद की यह दोषमूलक आलोचना थी । लाला सीताराम के ही अनूदित ग्रन्थ 'ऋतुसंहारभाषा' की समीक्षा भी द्विवेदीजी ने लिखी, जिसका -
१. डॉ० उदयभानु सिंह : 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग', पृ० १४१ ।