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१२६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बीच भी सार्वजनिक गद्यशैली का भाव द्विवेदीजी की मभी गद्यकृतियों में सबसे ऊपर दीख पड़ता है। परन्तु इस सन्दर्भ में डॉ० 'रामसकल राय शर्मा की अधोलिखित पक्तियाँ ध्यातव्य हैं :
"उनको किसी एक रचना-विशेप के साथ न तो बाँधा जा सकता है, न किसी चमत्कारपूर्ण व्याख्या मे उनके शैलीकार के व्यक्तित्व को उलझाया जा सकता है । भाव-प्रकाशन के तीन प्रकार-व्यंग्यात्मक, आलोचनात्मक और विचारात्मक-उनकी शैली मे पाये जाते है। कभी-कभी एक कृति में तीनो का सुन्दर मेल मिलता है।"१
इस प्रकार, भाषा एव शैली की आत्मा के रूप में द्विवेदीजी ने सार्वजनिक गद्यशैली को ग्रहण किया और विषयों की अनेकरूपता तथा भाव-प्रकाशन की दृष्टि से मुख्य रूप से तीन शैलियाँ अपनाई।
व्यंग्यात्मक शैली को गद्य मे भारतेन्दु एवं उनके सहयोगियों ने बहुविध विस्तार दिया था और उनमें वैयक्तिक गुणो का समावेश कर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की थी। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भी इस शैली का प्रयोग हिन्दी-भाषा, साहित्य तथा भारत की दशा में सुधार के निमित्त किया है । इस युग में भाषा-संस्कार तथा अन्यान्य समस्याओ को लेकर जो साहित्यिक विवाद चल रहे थे, उनमें ऐसी ही व्यंग्यात्मक शैली का प्राधान्य था। श्रीबालमुकुन्द गुप्त इस शैली के सर्वश्रेष्ठ पुरोधा थे। परन्तु, जहाँ कहीं भी द्विवेदीजी ने इसका आश्रय लिया है, अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। 'भाषा पद्य-व्याकरण' नामक पुस्तक की समीक्षा करते हुए उन्होंने व्यंग्य का भरपूर प्रयोग किया है । यथा : ___ "हाँ महाराज । आप विद्वान्, आप आचार्य, आप प्रधान पण्डित, आप विख्यात पण्डित और हम अगाध अज्ञ और दुर्जन; क्योंकि हमें आपकी यह व्याकरण तोषप्रद नही। भगवान पिंगलाचार्य ही आपके इस छन्द के नाम-धाम बतावें, तो बता सकते हैं और आपके इस समग्र पाठ का अर्थ भी शायद कोई आचार्य ही अच्छी तरह बता सकें । अज्ञों और दुर्जनों की क्या मजाल, जो इस विषय में कुछ कहने का साहस करें।
ऐसे ही स्पष्ट एवं तीक्ष्ण व्यंग्य का परिचय द्विवेदीजी ने हिन्दी की तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की अवस्था पर विचार करते हुए दिया है। यथा :
"... और, हिन्दी-भाषा में सम्पादन-कार्य करनेवालों की कुशलता की तो इतनी अधिक उन्नति हो रही है, जिसका माप बड़े-से-बड़े गज, लठे और जरीब से भी नहीं हो सकती। इसका कारण यह जान पड़ता है कि हिन्दी के सम्पादकों को सम्पादन-कार्य की
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० १८५-१८६ । २. डॉ० रामसकल राय शर्मा : 'द्विवेदी-युग का हिन्दी-काव्य', पृ० ७२।