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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १४५
सन्निवेश भी हुआ है, तथापि वर्णनात्मकता, भावात्मकता या चिन्तनात्मकता की प्रधानता के आधार पर ही इन तीन विशिष्ट कोटियों की भावना की गई है।"१
सार्वजनिक गद्यशैली की सरलता एव स्पष्टता की पृष्ठभूमि में द्विवेदी जी के निबन्धो की स्पष्ट रूप से वर्णनात्मक, भावात्मक और चिन्तनात्मक तीन ही शैलियाँ प्रस्तुत हुई है।
वर्णनात्मक निबन्धों की सीमा में द्विवेदीजी के उन निबन्धों की गणना हो सकती है, जिनकी रचना भूगोल, चरित्र, यात्रा, इतिहास, विज्ञान और उत्सवों आदि का सामान्य परिचय पाठकों को देने के लिए निबन्धकार ने की थी। ऐसे ही निबन्धों की शैली परिचयात्मक अथवा विवेचनात्मक भी कही जाती है । इस शैली के निबन्ध विविध-विषयक, ज्ञानवर्द्धक एवं भाषा-संगठन की दृष्टि से सरल है। कतिपय आलोचकों ने इस शैली की विषय-स्पष्टीकरण-पद्धति के आधार पर इसे 'व्यासशैली' की संज्ञा भी दी है। विषय के आधार पर इस शैली के वस्तु-वर्णनात्मक, कथात्मक, आत्मकथात्मक तथा चरितात्मक इत्यादि कई उपभेद भी माने जा सकते हैं। इन विविध कोटियो में अपने वर्णनात्मक या विवेचनात्मक लेखन का परिचय द्विवेदीजी ने दिया है । वस्तु-वर्णन से सम्बद्ध द्विवेदीजी के निबन्ध ऐतिहासिक अथवा आधुनिक स्थानों, इमारतो आदि पर लिखे गये है। ऐसे निबन्धो के उदाहरणस्वरूप 'ग्वालियर',२ 'साँची के पुराने स्तूप', 'बौद्धकालीन भारत के विश्वविद्यालय',४ 'देवगढ़ की पुरानी इमारत'५ आदि की चर्चा की जा सकती हैं । इस कोटि के निबन्धों में वर्णन की शैली किसी 'गाइड' जैसी अपनाई गई है । यथा : ____ "वर्तमान बगदाद टाइगरित नदी के दोनों किनारों पर घना बसा हुआ है। उसकी आबादी कोई डेढ़ लाख होगी। गलियाँ तंग और बेकायदे है । कूडा उठाने और गन्दा पानी निकलने का ठीक प्रबन्ध नहीं। आबोहवा अच्छी नहीं, पीने का पानी नदी से आता है। शहर के आसपास पेड़ नहीं।"६
स्पष्ट है कि इस कोटि के ऐतिहासिक वस्तुपरक समस्त निबन्धों में छोटे-छोटे वाक्यों एवं सरल भाषा का प्रयोग हुआ है। द्विवेदीजी के वर्णनात्मक निबन्धों का एक अन्य प्रभेद कथात्मक है। कहानी कहने जैसी सरलता तो द्विवेदीजी के सभी निबन्धों
१. डॉ० डदयभानु सिंह : 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनका युग', पृ० १५० ।। २. 'सरस्वती', दिसम्बर, १९०४ ई०, पृ० ४२५-४३५ । ३. 'सरस्वती', जून, १९०६, पृ० २१७-२२७ । ४. 'सरस्वती', जनवरी, १९०९ ई०, पृ० १५--३० । ५. 'सरस्वती' अप्रैल, १९०९ ई०, पृ० १७९-१८३ । ६. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० १४१-१४२ ।